एक दिन मंज़िल मिल जाएगी - by Bharmal Garg
जीता नहीं कोई संग्राम
फिर भी चल रहा अविराम।
लेकर मन में विश्वास
एक दिन मंजिल मिल जाएगी।
कितनी बार कदम डगमगाए
हुआ हताश, न सूझा कोई उपाय।
मन में गूंजी एक आवाज
एक दिन मंज़िल मिल जाएगी।
लेकर चल रहा अपना ही दम खम
समझ न पाया दुनिया के रंग ढंग।
आंखों में बसा लिया आकाश
एक दिन मंज़िल मिल जाएगी।
छूटा गांव, छूटी गली और गलियारे भी
छूटा घर, छूटे मंदिर और गुरुद्वारे भी।
बचा हुआ यही अहसास
एक दिन मंज़िल मिल जाएगी।
ताने उलाहने सह लेता हूं
सबसे बस यह कह देता हूं।
आ गया हूं आस पास
एक दिन मंज़िल मिल जाएगी।
चलता रहूंगा, चलता रहूंगा
पीछे कभी नहीं हटूंगा।
देखेगी दुनिया मेरा आगाज़
एक दिन मंज़िल मिल जाएगी।
रचना मौलिक एवं स्वरचित है।
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