भारतीय संस्कृति पर मेरे कुछ विचार - डॉ हिमांशु मिश्र



प्रस्तावना :- 
भारतीय संस्कृति लगभग पाँच हज़ार वर्ष पुरानी है। भारत को भारतवर्ष, 'जम्बूद्वीप', भारतखण्ड, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान, हिन्द इत्यादि नामों से जाना जाता था । जहाँ तक ‘’संस्कृति’’ शब्द का अर्थ है तो इसका अर्थ होता है वह विशेष संस्कारित या परिष्कृत जीवन शैली जिसके भाव और अर्थ मात्र कला और ज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि संस्थाओं और सामान्य व्यवहार में भी अभिव्यक्त हों । व्यापक अर्थों में, किसी देश या किसी निश्चित भूभाग में विशेष जीवन शैली, भाषा, धर्म, सामाजिक संस्थाएं, त्योहार, मान्यताएं, परम्पराएँ, आस्था एवं विश्वास, कला, साहित्य, ज्ञान, खान-पान, वेष-भूषा इत्यादि से संबन्धित साझा मूल्य मिलकर एक समुच्चय का निर्माण करते हैं जिसे हम संस्कृति कहते हैं। इस अर्थ में भारतीय संस्कृति की अपनी विशिष्ट पहचान है जो प्राचीन काल से लेकर आज तक निरंतर चली आ रही है और जो समूचे विश्व में समादृत है । वस्तुत: भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का संगम है जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम से जानते हैं। वेदों में भी कहा गया है कि , “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” अर्थात सद्विचार सभी दिशाओं से हमारे पास आयें। भारत में शुरू से ही अनेक संस्कृतियों के लोगों का आगमन होता रहा है। निश्चित रूप से यह भारतीय संस्कृति की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ही रही है कि हम सभी प्रकार के लोगों के प्रति सहिष्णु रहें हैं और सहिष्णुता इसकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। भारतीय संस्कृति की इसी विशेषता को जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत की खोज में अनेकता में एकता कहा है। दुनिया का कोई ऐसा धर्म, रिलीजन या मजहब नहीं है जिसके मानने वाले अपने देश में न हों। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रगान में इसी एकता एवं साझी सांस्कृतिक विरासत को बहुत सुंदर ढंग से वर्णित किया है। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ के रचयिता मोहम्मद इकबाल ने अपने इस गीत में इसी खूबी को अलंकृत किया है। विद्वानों ने इस सामाषिक संस्कृति को मेल्टिंग पॉट ( पिघलने वाले बरतन ) वाली विशेषता बताया है जिसमें विभिन्न संस्कृतियों के लोग आपस में घुलमिल जाते हैं तो कुछ लोग इसे बहुसांस्कृतिक मोजैक के नाम से भी जानते हैं। आज स्वतंत्र भारत के प्रसंग में यह कहना समीचीन ही होगा की भारत का संविधान भारतीय संस्कृति का संवाहक है । 

आइये, भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा पर विस्तार पूर्वक दृष्टिपात करें। भारत का कोई ऐसा सिकंदर या महमूद गजनवी जैसा शासक नहीं हुआ जिसने किसी दूसरे देश पर लोभ या महात्वाकांक्षा के कारण आक्रमण या कब्जा किया हो। विस्तारवाद, साम्राज्यवाद अथवा उपनिवेशाद कभी यहाँ के शासकों का मंतव्य नहीं रहा क्योंकि भारतीय संस्कृति भौतिकवाद या सुखवाद पर आधारित न होकर अध्यात्मवाद के मूल्य पर आधृत है। बल्कि हमारी कमजोरी यह रही की अपने भूभाग को या संस्कृति को एकता के सूत्र में पीरो नहीं सके। कुछ तो राजा आम्भी, जयचंद और मीरजाफ़र जैसे लोग भी रहे जिन्होने विदेशी शासकों के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई। किन्तु हमारा देश सांस्कृतिक रूप से दमित कभी नहीं हुआ। जो विदेशी आक्रांता यहीं बस गए उनको भी यहाँ स्थान मिला और देशज संस्कृति ने भी बाह्य संस्कृति को अपनाया। ऐसा नहीं है कि सांस्कृतिक एकीकरण के प्रयास नहीं हुए । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन पर आधारित कथाओं और लीलाओं के बारे में साहित्य तिब्बत से लेकर इन्डोनेशिया तक पाया जाता है । यह भारतीय संस्कृति की व्यापकता ही है कि आज भी इन्डोनेशिया जैसे एक मुस्लिम राष्ट्र में रामलीला आयोजित की जाती है। कहना न होगा कि आदि काल से रामायण एक धार्मिक ग्रंथ होने के साथ ही एक सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रेरणा का स्रोत रहा है। बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु जब सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को जब सूदूर देशों में भेजा उन देशों तक अपनी संस्कृति का भी विस्तार हुआ।
धार्मिक एकीकरण का दूसरा सशक्त एवं सफल प्रयास मध्य युग में आदि शंकराचार्य ने किया जब उन्होने भारत के चारों दिशाओं में चार प्रसिद्ध शिव पीठों की स्थापना की। यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य है कि हमारे यहाँ राजाओं ने धर्म के विस्तार के लिए युद्ध नहीं किया, न कोई हिंसा की । एक नास्तिक को भी इस संस्कृति में सम्मान पूर्वक जीने का अवसर मिला। इस अर्थ में हिन्दू धर्म, रिलीजन अथवा मजहब न होकर एक सर्वसमावेशी सांस्कृतिक इकाई या सत्ता कहीं अधिक है। भारतीय दर्शन, संगीत एवं खान-पान के क्षेत्र में जो विविधतापूर्ण एवं समृद्ध विरासत दिखाई देती है वह स्वयं एक बहुसांस्कृतिक सम्मिलन तथा संस्कृतिकरण का परिणाम है। आश्चर्य नहीं, बिना किसी राग अथवा द्वेष के यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि व्यापक हिन्दू सभ्यता ने एक सामाषिक भारतीय संस्कृति का रूप ले लिया है जिसने हिन्दू, बौद्ध , जैन, पारसी, सिक्ख, ईसाई एवं इस्लाम इत्यादि सभी के सार्वभौमिक मूल्यों को आत्मसात कर लिया है। यह भारतीय संस्कृति में सन्निहित शक्ति ही थी कि मदध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन एवं 19वीं शताब्दी में सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण के माध्यम से उसने स्वयं को और परिष्कृत एवं जीवंत बनाया जो अंतत अंग्रेजों के विरुद्ध एक विश्व के एक अद्वितीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के रूप में प्रस्फुटित हुआ। और अन्ततः अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। यह हमारा सांस्कृतिक परा-अहं ही था कि हम अपने देश को पराधीन नहीं देख सकते थे। हमने मंगल पाण्डे, चन्द्रशेखर आज़ाद एवं भगत सिंह जैसे वीर पैदा किए। दूसरी ओर महात्मा गाँधी जैसे महामानव ने भी इस धरती पर जन्म लिया जो भारतीय संस्कृति के सच्चे संदेशवाहक और प्रतिनिधि थे। आधुनिक भारत में यह भी सामान्य रूप से देखा जाता है कि पुरातन सामाजिक प्रभुत्व या वर्चस्व समाप्तप्राय हैं और संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण की सामाजशास्त्रीय प्रक्रिया के द्वारा एक आधुनिक भारत का उदय हुआ है जो अधिक समांगीकृत एवं समतामूलक है। यह सब हमारी उदार भारतीय सांस्कृतिक विशेषता ही है कि हमारे यहाँ यूरोप की भाँति रक्तरंजित संघर्ष या क्रान्ति के बिना ही ये व्यापक सामाजिक बदलाव संभव हो सके हैं। हमारे साहित्य एवं फिल्में इस उदार तथा सर्वग्राही सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिम्बन एवं प्रतिनिधित्व करती है। हाल के रामजन्मभूमि एवं बाबरी मस्जिद जैसे विवादों का सर्वमान्य हल, सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाओं में लोगों की आस्था तथा अपनी समस्याओं का समाधान करने की सामाजिक-राजनीतिक इच्छा-शक्ति यह दर्शाता है कि भारतीय संस्कृति में वह लचीलापन है जो गतिरोधों को शांतिपूर्वक निपटाने में सहायक है। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि अफगानिस्तान या पाकिस्तान जैसे देशों में बिना हिंसा के यह सब संभव है ! 
वस्तुत: भारतीय संस्कृति का मूलाधार वह हिन्दू सभ्यता है जो अपने चरित्र से लोकतान्त्रिक है क्योंकि वह किसी केंद्रीय दैवीय सत्ता का समर्थन नहीं करती। यहाँ बहुदेववाद का प्रचलन रहा है। सूर्य, चंद्रमा से लेकर ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी हैं, तुलसी-पीपल-बरगद और प्रकृति पूजा भी है, गंगा मैया और गाय माता भी समादृत हैं । केंद्रीय सत्ता का आग्रह अधिनायकवाद और तानाशाही की ओर ले जाता है। किन्तु भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी और लोकतंत्रात्मक मूल्यों की विरासत के कारण ब्रिटिश लोकतन्त्र के माडल का सफलतापूर्वक इस देश में चल पाना और विश्व स्तर पर एक सबसे बड़े लोकतन्त्र के रूप में उभर पाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। 

निष्कर्ष :- 
अपनी पुस्तक में ‘ दी एण्ड आफ हिस्ट्री ऐंड दी लास्ट मैन’ में फ़्रांसिस फ़ुकुयामा का कहना है कि इतिहास अब अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंच चुका है। बाज़ार अर्थव्यवस्था और बहुदलीय लोकतंत्र अब इतिहास के स्थाई रूप होंगे। घटनायें होंगी, लेकिन इतिहास के विवर्तन का दौर अब समाप्त हो चुका है। उन्होंने इसे इतिहास का अंत कहा है। वहीं दूसरी तरफ उनके विरोध में सैम्युएल हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘दी क्लैश आफ सीविलाइजेशन्स’ आफ में दावा किया कि इतिहास के द्वन्द्व बने हुए हैं, लेकिन वे विचारधारा के आधार पर नहीं, बल्कि संस्कृतियों के बीच द्वन्द्व के रूप में जारी रहेंगे। विश्व की प्रमुख संस्कृतियों की अपनी सूची प्रस्तुत करते हुए इस संदर्भ में उन्होंने विशेष रूप से पश्चिम की ईसाई संस्कृति और इस्लामी संस्कृति के बीच आधारभूत संघर्ष की भविष्यवाणी की है । मैं इन दोनों विद्वानों के विचारों के बीच भारतीय संस्कृति के लिए एक सुनहरा अवसर देखता हूँ। लेकिन इसकी एक पूर्व शर्त यह है कि हमें अपनी विविधताओं का सम्मान करना होगा। जाति, धर्म, भाषा एवं क्षेत्र के आग्रह को पीछे छोड़कर एक सहिष्णु, सर्वग्राही, सामाषिक एवं समतामूलक भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का भरसक प्रयत्न करना होगा। राष्ट्रीयता के अखिल भारतीय सांस्कृतिक संदर्भों पर कार्य करना आवश्यक है। किसी जादू की छड़ी या अतिवाद से काम नहीं चलेगा। इतिहास और भूगोल द्वारा प्रदत्त समस्याओं का समाधान प्राप्त करने में कुछ धैर्य और समय की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति की निरंतरता और बहुलता दो ऐसे तत्व हैं जो हम सभी में आशावाद का संचार करते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण का चरैवेति सूक्त एक मंत्र सिद्ध होगा : चलते रहो, चलते रहो क्योंकि जीवन में वही सफल होते हैं जो जागृत होकर आगे बढ़ते हैं।

लेखक :- डॉ हिमांशु मिश्र
              लखनऊ, उत्तर प्रदेश (भारत)

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