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शिक्षक दिवस लेखन प्रतियोगिता
प्रतियोगिता संख्या- 2
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प्रतिभागी का नाम- Dr. Rashmi Nair
अगर हम पुराने जमाने में अर्थात अंग्रेज शासन काल में झाँककर देखे तो उस समय नारी शिक्षा के प्रति उदासीनता नजर आयेगी । वो ऐसा समय था जब लडकियों की शिक्षा को उन दिनों नजर अंदाज कर दिया जाता था । उतना अनिवार्य नहीं समझा जाता था जितना लडकों की शिक्षा को तवज्जो दिया जाता था ।
न जाने क्युँ ? बचपन से देखा गया है कि लडकों और लडकियों में हमेशा से फरक होता है । चाहे बात कोई भी हो माता पिता के लाड-दुलारकी हो, शिक्षा की ,खेलने-कुदने की आजादी की या पढने-लिखने की हो । हमेशा से लडके लडकियों से दस कदम आगे पाये जाते हैं। पर लडकियों के बारे में कभी किसी ने न इस विषय में कुछ सोचने की कोशिश की और न ही जरुरत महसूस की ।
यह बात तो उनके जनम से तय हो जाती है कि कौन आगे जायेगा और कौन पीछे रह जायेगा । कितने दुख की बात है कि नासमझी की उमर में ही यह तय हो जाता है कि कौन घर में बैठकर चुल्हा चौका करेगा और कौन स्कुल में जाकर पढ लिखकर अच्छा और बडा आदमी बनेगा । दोनों एक ही माता पिता की संतान होने के बावजूद फरक होता था क्योंकि एक लडका और दूसरी लडकी होती है । यही बात दोनों की जिंदगी में जमीन आसमान का फरक बन जाता है । अगर लडकी अपने भाई की देखा-देखी पढना भी चाहे तो उसे पढने की बिल्कुल इजाजत नहीं । भले ही बेटा स्कुल में जाकर पढना चाहे या न चाहे, पढे या न पढे या फिर दिनभर आवारगीही करके लौट आये । पर बेटे का पढना ही माता पिता को सदियों से सही लगता आ रहा है । न जाने क्युँ लडकियों का पढना-लिखना खेलना कुदना कभी पसंद नहीं आया ।
लडकें पैदा होते ही बहुत खुशियाँ मनाई जाती, जश्न मानाया जाता पर बेटी के पैदा होने पर माता पिता और घर के बुर्जुगों के चेहरे मातम मनाते नजर आते हैं। जब लडकी दुनियाँ में आती, उस दिन से माता पिता उसको पालने-पोसने और खिलाने-पिलाने के लिये होने वाले खर्च सामना करना और उसके लिये पैसा जुटाना बडा मुश्कील जान पडता । कभी–कभी / कहीं–कहीं तो गरीबी के कारण लडकियों को बेचभी देते या फिर न चाहते हुए जो एक बेटे के लिये बहुत खुशी से करते हैं वही सब बोझ समझकर करते । उसके साथ ऐसा पक्षपातपुर्ण व्यवहार करते । उनके मन में एक ही बात घर कर गई कि लडकी को पढाकर क्या करना है ? बडी होने पर उसे शादी करके ससुराल ही तो जाना है । फिर क्युँ लडकी की पढाई में व्यर्थ ही पैसा खर्च करके, पैसा बर्बाद करें? लडकी की पढाई तो काम आनेवाली नहीं है । वही पैसा लडके की पढाई मे लगायेगे तो लडका पढ-लिख जायेगा तो परिवार का पालन-पोषण वही करेगा । बुढपे में वही उनका एकलौता सहारा होगा और तो और अंतिम समय में वही उनको कांधा देगा और चिता को भी वही आग देगा । लडकी तो वैसे भी पराया धन ही है । यही हमारे यहां के लोगों की सोच है जो नारी शिक्षा के रास्ते में रुकावट थी। पर वो ये नहीं जानते कि पढलिखकर बेटा कैसा बनेगा ? अगर अच्छा निकला तो नसीब की बात है अगर मान लिजिये कहीं बुरी संगत में पड गया तो क्या होगा ? रोज शराब पीकर, घरमें आकर ,नशेमें कही मार-पीट, गाली-गलौच करने लगे तो क्या होगा ? कामधाम छोडकर,नशे में दिनभर घर में या कहीं सडक पर पडा होगा तो क्या होगा ? शराब के लिये घर से पैसे न मिलने पर उधार लेकर कर्जा कर ले तो क्या होगा ? कहीं चोरी के इल्जाम में फंस गया तो क्या होगा ? कहीं पैसे के लिये छीनाझपटी की, मारपीट की या खूनखराबा किया तो क्या होगा ? बूढापे में माता पिता को कौन काम देगा ?
और तरस खाकर दे भी दिया तो क्या वो कर पायेंगे ? पर ये सब बातें वो नहीं सोच पाते । इतनी गहरी सोच बिना शिक्षा के किसी के भी दिमाग में आ ही नहीं सकती।
इसके पीछे सबसे बडा और मुख्य कारण है कि पुरानी पीढी के लोग स्वयं अशिक्षित थे । उनको शिक्षा का महत्व पता नहीं था । वो नहीं जानते थे कि पढना-लिखना लडका हो या लडकी दोनों के लिए बहूत जरुरी है । शिक्षा लिंगभेद नहीं जानती । वो सबके लिये है ।
शिक्षा वो ज्योति है जो घनेसे घने अंधेरे को दूर करती हैँ । मनुष्य को एक सही रास्ता दिखाती है । शिक्षा के बिना मनुष्य आँखों के होते हुए भी अंधा माना सकता है । फिर चाहे वो नारी हो या पुरुष । पुरुष को शिक्षित होने में कोई रोक-टोक नहीं है । वो स्वयं को शिक्षित कर लेते हैं पर नारी की शिक्षा के बारे में वो भी नहीं सोचते । वैसे नारी पर हावी होने की बहुत पुरानी परंपरा युगों-युगों से चली आ रही है । बस् कमी की जरुरत होती है । वो चाहते है गलती नारी से हो और उनको उनके साथ मनचाहा सलुक करने के लिये मौका मिले । पुरुष ने नारी को कभी समान दर्जा दिया ही नहीं। हमेशा से वो नारी को सीर्फ किसी न किसी बातपर, किसी न किसी वजह से प्रताडित ही करता आया है । युगों से उसने नारी का शोषण ही किया है । नारी की मजबूरी और दुर्दशा पर वह हंसता ही रहा है । ये उसकी एक असुरी प्रवृति है । वो हमेशा नारी को अपने वश में बांधकर रखना चाहता है । बेचारी नारी अनपढ गँवांर होने के कारण वो इतना ज्यादा सोच भी नहीं सकती कि जिस घर में वो बेटी बनकर है वो घर भाभी के आनेपर उसका नहीं रहेगा, शादी के बाद पिता भी ससुराल वालों के भरोसे छोड देगा । ससुराल में जिसको वो अपना पति मानती वो कभी भी उसे धोखा दे सकता है । जिसे वो अपना बेटा मानती है वो बीवी के आनेपर बदल भी जायेगा ।
वो आखिर में कहीं से भी ठुकराई जा सकती । पर कब ये समय ही तय करता है । बेटों के मोह में अंधे होकर गृहलक्ष्मी को ठुकराते हैं। सचमुच इनकी सोचपर बहूत तरस आता है । ऐसे कई उदाहरण समाज में हम देखते हैँ कि शिक्षा की कमी के कारण कितनी ही लडकियों का जीवन बर्बाद हुआ है । हर कदमपर लडकियों के साथ छल-कपट और धोखा होता है। उन्हें अक्सर हर बार प्रताडित किया जाता । अपनी छोटी से छोटी जरुरत के लिये लडकियों को माता-पिता के सामने ,भाई के सामने, हात फैलाने पडते । अगर वो शादीशुदा है तो अपने सास-ससुर या पति के सामने अक्सर पैसों के लिये हात फैलाने पडते । अगर वो मानकर राजी खुशी से पैसे दे तो अच्छी बात है पर ऐसा बहुत ही कम होता है । न दे और ताने मारकर या जलीकटी सुनाकर दे तो कोई फायदा नहीं । अगर न भी दे तो वो क्या कर सकती ? चुपचाप अपना मन मारकर, घुटकर रह जाती । या बहुत ज्यादा जरुरत होने पर चोरी करने पर भी मजबूर हो सकती है । वो पुरी तरहसे हर बातके लिये दूसरोंपर आश्रित हो कर रह जाती ।
पर समय हमेशा एकसा नहीं रहता है । समय परिवर्तनशील है । उस जमाने में जहाँ आजादी के लिये कठोर प्रयास किये जा रहे थे । वही उस जमाने के कई समाज सुधारको ने यह देखा और महसूस किया कि हमारा समाज अंग्रेजों के मुकाबले में बहूत ही पीछडा हुआ था । उनमें कई ऐसे थे जो भारतमे पढने-लिखने के बावजूद विदेशो में जाकर पढाई की । वैसे कई उदाहरण है । संक्षिप्त में राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी, पंडीत जवाहरलाल नेहरु,डॉ.बाबाभीमराव अंबेडकर और भी है । इन्होने भी शिक्षा की कमी को महसूस किया ।
उपरोक्त सभी ने भारत के लोगो को शिक्षित करने का कठीन प्रयास भी किया। सबकी राय में शिक्षा के माध्यम से ही लोगों को आजादी का महत्व भी समजाया जा सकता था । उनके अलावा भी एक ऐसे शख्स थे जो नारी शिक्षा के पक्ष में पुर्णरुपसे समर्पित थे । वो थे सर्व प्रथम महात्मा ज्योतिबा धोंडूबा फूले । समाज में नारी की होती हुई दुर्दशा देखते हुए उन्होने नारी शिक्षा शुरु करने का साहस किया । उनके लिये बहुत बडी चुनौती थी । जहाँ सारा समाज नारी शिक्षा का विरोध करता था । ऐसे में उन्होने ईसवी सन 1848 में पहला बालिका शिक्षा विद्यालय खोला । पर एक भी महिला विद्यालय में आने का साहस नहीं जुटा पाई। उनकी दुविधा ये थी कि पढने वाले पुरुष ही थे। तब उन्होने नारी शिक्षा की शुरुआत अपने घर से की । सबसे पहले अपनी ही पत्नि सावित्रीबाई को शिक्षित करने की ठानी। पर इस कार्य में समाज के ठेकेदारो ने उपद्रव मचाना शुरु किया, उनकी राह में कई कठिनाईयां उत्पन्न की। उनका सामाजिक बहिष्कार भी हुआ। यहां तक कि लोग सावित्रीबाईजी रास्ते में चलकर विद्यालय आते जाते समय गिला गोबर फेंककर उनका अपमान भी किया। पर सावित्रीबाई ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया । हिम्मत नहीं हारी । उसने डटकर परिस्थितियों का सामना किया । सावित्रीबाईजी ने अपना हौसला बनाये रखा और हिम्मत से अपनी पढाई पुरी की । उन्होने नारी शिक्षा का प्रचार किया । नारी के लिये शिक्षा क्युँ अनिवार्य है । यह हर नारी को समझाया । उन्होने सब नारियों को शिक्षा के फायदे समझाये । अशिक्षित होने के नुकसान भी गिनाये । वो किस तरह अपनी शिक्षा का उपयोग अपने जीवन में उपयोग कर सकते हैं, यह भी अच्छी तरह समझाया । जब सावित्रीबाईजी बात उनके समझमें आई तब नारियों का विवेक जागा । उन्होनेभी शिक्षा के प्रति अपना समर्थन जताया । विरोध तो होता रहा । पर उन्होने किसी भी बात की परवाह नही की ।
बल्कि सबको प्रेरित करते हुए नारियो में शिक्षा के प्रति लगन की एक ऐसी ज्योत प्रज्वलित की जिसकी रोशनी धीरे-धीरे नारियों के मन में जगमगाने लगी । वे भी बहूत उत्साह और लगन से पढाई लिखाई में दिलचस्पी लेने लगी । उनके मनमें भी पुरानी परंपरा से बाहर निकलकर कुछ नया करने और कर दिखाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई । जिसके तहत पुरी लगन और मेहनत से शिक्षा ग्रहणकर वो मान-सम्मान से जीने लगी । उनका जीवन परिवर्तन से चमक उठा । अब उनको कोई भी ठग नहीं सकता ,न कोई उनके भोलेपनका फायदा ही उठा सकता । शिक्षा के साथ साथ उन्हें अंग्रेजी भाषका ज्ञान होने से वे कहीं भी नोकरी करने के लायक हो गई और अपने परिवार को आर्थिक रुप से अपना सहयोग भी देने लगी । वो कायदा - कानून भी जानने लगी । जरुरत पडने पर उसका भी सहारा लेने लगी । धीरे–धीरे समाज में उनकी छबी सकारात्मक बनने लगी । अब वो न कोई बोझ है न कोई अभिशिप्त जीवन जीने के लिये मजबूर है । वो नारियाँ जिन्होने हमें हमारी शिक्षिका बनकर हमें पढाया–लिखाया वो उस महान नारी के कारण ही संभव हो पाया जिन्हें पहली शिक्षिका, सावित्रीबाई फूलेजी के नाम से हम सब जानते हैं । शिक्षा और ज्ञान से नारियों के जीवन में प्रगती होने लगी । वो आत्मनिर्भर हुई । अपने पैरोंपर खडी हो गई। नोकरियाँ करने लगी । अब उन्हें पैसे- पैसे के लिये मोहताज नही होना पडता । वे पुर्ण रुप से स्वतंत्र हो गई ।
आज अगर हम देखते हैं तो पाते हैं हर जगह नारी ही नारी नजर आती है । चाहे वो कोई भी कार्यक्षेत्र हो.। हर जगह नारी सबपर भारी है । कुछ साल पहले कुछ विशिष्ठ पदो को सीर्फ पुरुषों का ही चुनाव होता था। आज की तारीख में उन सारे विशिष्ठ पदोंपर नारी विराजमान हो चुकी है । पहले हम सीर्फ पुरुष पोस्टमॅन, पुलिस, डाक्टर्स, ड्राईवर्स ,मोटरमॅन आदि देखते थे । पर आज नारियाँ इन पदोंपर विराजमान है ।
कई उदाहरण है । पहली महिला डॉक्टर आनंदी बाई, पहली महिला शिक्षिका आदरणीय सावित्रीबाई फूले, पहली मूल भारतीय स्पेस मे जानेवाली पहली महिला कल्पना चावला,सबसे पहली पुलिस ऑफिसर किरण बेदी और भी कई भारतके इतिहास में भी पाई जायेगी । आज हम नारी को प्रगती के उच्च शिखर देख रहे हैं उसके पीछे महान शिक्षिका आदरणीय सावित्रीबाई फूलेजी की कडी मेहनत और लगन ही है जिसके बलबुते पर आज बडी शान से नारियाँ नजर आती है । हम सभी नारियों की तरफ से उनको कोटी –कोटी नमन । इस वर्ष शिक्षक दिवस पर हम सब उन्हें याद करके अपने आप गर्वान्वित महसूस करेंगे ।
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