मैं "खाकी" हूँ ( हिन्दी कविता ) - by Lokesh Kumar Upadhyay

 


मैं "खाकी" हूँ

सर्दी,गर्मी,या हो

बरसात मैं सदा रहती

तैनात,

मैं देश की रक्षक हूँ

"तिरंगा" हैं मेरी शान

उसके लिए मेरा

जीवन "कुर्बान"

मैं "खाकी" हूँ ।


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मैं सजग हूँ

इसलिए मेरा देश 

सोये चैन से

मेरे देश में

आने ना दूँ कोई 

विपदा !

मैं "खाकी" हूँ ।


गर भूल से भी आ जाये

तो, में हूँ बनकर रक्षक

देश की

भले ही बाजी 

लग जाये प्राणों की

वतन की ख़ातिर

प्राणों का कोई मोल

नहीं,

मैं "खाकी" हूँ।


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जब मुझे पहनता हैं

एक सिपाही

गर्व से सीना फूलता हैं

उसका,

एक नए जोश के साथ

हुँकार भरता हैं

दुशमनों पर

करने को उनको "धराशाही"

मैं "खाकी" हूँ ।


जब तक रहेगी ये "खाकी"

तिरंगा लहराता रहेगा

गगन में, " और "

देश का मस्तक रहेगा

सदा ताज पर

ना क़दम रखेगा कोई

जग का दुश्मन

ना आएगी कोई बाधा 

आख़िर मैं "खाकी" हूँ ।

  जय भारत

            जय हिंद ।।



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