गुरु और शिष्य का संबंध - by Ratana Kaushik
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शिक्षक दिवस लेखन प्रतियोगिता
प्रतियोगिता संख्या - 2
प्रतिभागी का नाम - Ratana Kaushik
गुरु और शिष्य का गहरा संबंध हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रमुख परिचायक रहा है। हम चाहे सतयुग की बात करें, चाहे त्रेता युग की या द्वापर युग की प्रत्येक युग में गुरु-शिष्य के अनेकों प्रसंग आये हैं और प्रत्येक प्रसंग में गुरु और शिष्य का गहरा सबंध रहा है।
स्वयं ईश्वर ने अपने से भी प्रथम पूज्य गुरु को ही स्थान दिया है क्योंकि ईश्वर का कहना है कि प्रत्येक मनुष्य गुरु के माध्यम से ही मुझ तक पहुँच सकता है अर्थात् मनुष्य को मुक्ति का मार्ग गुरु ही बताता है। प्राचीन काल के गुरु वशिष्ठ, गुरु परशुराम, गुरु विश्वामित्र, गुरु द्रोणाचार्य जैसे महान गुरु हमारे देश में हुए हैं।
तो दूसरी तरफ भगवान राम, कृष्ण, अर्जुन, कर्ण, एकलव्य जैसे शिष्यों ने गुरु दक्षिणा देकर तथा अपने गुरु के प्रत्येक आदेश का पालन करके अपने शिष्य-धर्म को निभाकर गुरु और शिष्य के सम्बंध की गरिमा को बढ़ाया है और एक अप्रतिम उदाहरण दिया है।
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गुरु और शिष्य का सम्बंध बहुत ही महत्वपूर्ण होता है ।क्योंकि युवा राष्ट्र का भविष्य है गुरु उनके मार्गदर्शक ।इस तरह गुरु एक प्रकार से राष्ट्र निर्माता होते हैं।
अत: एक आदर्श राष्ट्र की स्थापना में गुरु और शिष्य की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। वैसे तो बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती है लेकिन जब वह घर के परिवेश से बाहर आता है तो सबसे पहला परिचय उसका उसके गुरु से ही होता है।
इसलिए असली संसार से बालक का परिचय उसके गुरु द्वारा ही होता है।
पाँच वर्ष तक के अबोध बालक का संसार सिर्फ उसकी माँ के इर्द-गिर्द होता है वही उसकी सुरक्षा कवच होती है तो सबसे पहले संस्कार भी वह अपनी माँ से ही सीखता है। और जब बाहरी दुनिया में उसका सामना अपने गुरु से होता है तो माँ के बाद जो सबसे पहले मानसिक रूप से प्रभावशाली असर, लगाव, या भावनात्मक रूप से जो जुड़ाव होता है वह उसके गुरु से ही होता है। उसके बाल मन पर अपने गुरु की अमिट छवि पड़ने लगती है इसलिए इस अवस्था में बालकों के प्रति गुरुओं का कर्त्तव्य बहुत अधिक हो जाना चाहिए।
मैं स्वयं पेशे से अध्यापिका होने के कारण यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है और वास्तविकता भी यही है कि बालक बचपन से ही अपने गुरुओं में अपना आदर्श ढ़ूंढ़ने लगते है। और यह अवस्था ऐसी होती है कि इस समय गुरु द्वारा बोला गया प्रत्येक वाक्य उसके लिए अंतिम सत्य होता है अर्थात् वह आँख बंद करके अपने गुरु की बात पर विश्वास करने लगता है। इसलिए प्रत्येक गुरु की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि इस अवस्था मे अपने शिष्य के प्रति उनकी गरिमामयी और एक आदर्श छवि को वे स्थापित करें जिससे वे शिष्य प्रारंभ से ही सही राह की ओर ले जा सकें।
माता-पिता के बाद प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में गुरु ही एक मात्र ऐसा होता है जो कि कभी भी अपने शिष्य का अहित नहीं चाहेगा सदैव उसके मन में अपने शिष्य के प्रति ढ़ेरों आशीर्वाद ही रहते है। माता-पिता और गुरु ये तीन ऐसे व्यक्ति है जो कि अपनी संतान और अपने शिष्यों को सदा उन्नति के शिखर को छूते हुए देखना चाहते है। जब बच्चा इस शिखर तक पहुँच जाता है तब ये तीन व्यक्ति ही ऐसे होते है जो उससे भूलकर भी ईर्ष्या नहीं करते हैं।
प्रत्येक गुरु जब अपने शिष्य को अपने से भी ऊँचे पद पर देखता है तो उसका सीना गर्व से फूला नहीं समाता है और उस दिन वह अपने शिक्षक जीवन को सार्थक समझता है। लेकिन आज वर्तमान युग में गुरु और शिष्य के सम्बंधों में वो पहले जैसी गरिमा नहीं रह गई है। उसके पीछे अनेकों कारण हैं। जिसमे सबसे प्रमुख कारण हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा का जोरों-शोरों से प्रचालन में आना। इसका तात्पर्य यह बिल्कुल भी नहीं है कि मैं अंग्रजी भाषा की विरोधी हूँ। अंग्रेजी भाषा सबके लिए अनिवार्य है क्योंकि यह एक विश्व स्तर की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है।
लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में आज अभिभावक, शिक्षक, छात्र सभी अंग्रजी भाषा को ही अपने जीवन के विकास का पर्याय मानने लगे है। कहते है ना कि अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजी छोड़ गये। आज यह हमारे घरों में इस कदर घुस चुकी है कि हम पश्चिमी भाषा में ही नहीं उनकी सभ्यता के रंग में भी रंगते जा रहे है। जिसका दुष्प्रभाव आज हमारी भारतीय संस्कृति पर बहुत अच्छे से देखा जा सकता है। आज हम ही पश्चिमी सभ्यता को अपनाने के कारण हमारे सामाजिक मूल्यों, संस्कृति, व सभ्यता जो की हर सभ्यता से सबसे पुरानी है उसे धूमिल करने में लगे हुए हैं। आज हमारी युवा पीढ़ी तो हमारी भारतीय संस्कृति से पूर्णतः विमुख हो चुकी है जिसका प्रमुख कारण है आध्यात्मिकता से अलगाव और भौतिक सुखों की चाह की अंधी दौड़।
इस भौतिकवादिता का असर केवल शिष्यों पर ही नहीं गुरुओं पर भी हो रहा हैं। आज के अभिभावक अपने बच्चों के लिए ऐसे विद्यालय और कोचिंग सेंटर की तलाश में रहते हैं कि जहाँ बच्चे को शिक्षा की अपेक्षा भौतिक सुख-सुविधाएँ अधिक से अधिक मिले और जब वे शिक्षित होकर बाहर निकले तो लाखों के पैकेज वाली सैलरी मिले। या आज बहुत से बच्चे विदेशी धरती की ओर पलायन करने की होड़ में लगे हुए हैं।
इधर शिक्षकों की स्थिति भी यही है कि वह भी लाखों में वेतन लेकर छात्र को केवल वही शिक्षा दे रहे है जिससे उनके शिष्य भौतिकवादिता के संसार में प्रवेश कर जाए। ऐसी स्थिति में शिष्य उच्च शिक्षित तो हो जाता है लेकिन भारतीय संस्कार और मूल्य उनके लिए गौण हो जाते हैं। एक तरफ आज ऑनलाइन पढ़ाई, स्मार्ट क्लासेज, कंप्यूटर आदि ऐसे आधुनिक तकनीकी साधनों से बच्चे शिक्षित तो हो रहे हैं परंतु गुरु व शिष्य के सम्बंधों में बहुत दूरी आ रही है क्योंकि ये तकनिकी साधन बच्चों को उच्च शिक्षित तो कर रहे है परन्तु गुरु के माध्यम से उनमे समाजिक मूल्यों, संस्कारों, व देशभक्ति की भावना का विकास नहीं हो पा रहा है। ये सभी चीज़ें कहीं ना कहीं आज के युवाओं में विलुप्त हो रही है।
वहीं एक तरफ वे वंचित छात्र जो आर्थिक परिस्थितियों के कारण इस प्रतिस्पर्धा में भाग ही नहीं ले पाते तो वे समाज से कुंठित हो जाते है। जिसके कारण छात्र दो वर्गों में बँट जाते है अमीर छात्र और गरीब छात्र। इसी कारण आज शिक्षक और शिष्य के संबंधो के बीच जो गरिमा थी वो लगभग विलुप्त हो चुकी हैं। क्योंकि अमीर छात्रों में यह अहम् की भावना घर कर जाती है कि जब शिक्षक को लाखों की फीस दी है इसलिए उन्होंने ने पढ़ाया है वरना वे हमें पढ़ाते ही क्यूँ ? तो ये एक गंभीर विचारणीय प्रश्न बन गया कि शिष्य में गुरु के प्रति सम्मान और निष्ठा होनी चाहिए वह तो कही नज़र ही नहीं आ रही है क्योंकि ये दोनों ही अपने स्वार्थ रुपी भौतिक सुविधाओं को जुटाने में लगे हुए है।
आज के औपचारिक विद्यालय ऐसे हैं जो ऐसे छात्र तैयार कर रहे है जो शिक्षा प्राप्त करके सफ़ेदपोशी को ही अपनाते है बुनियादी कार्य करने को तो वे तैयार ही नहीं है। क्योंकि उन्हें प्रारंभ से ही केवल किताबी शिक्षा दी जा रही है ना कि व्यावसायिक। आज के छात्र शिक्षा प्राप्त करके सिर्फ नौकर बनकर रह गये है। अपना स्वयं का स्टार्ट-अप शुरू करने की क्षमता उनमे पैदा ही नहीं की जाती है।
आज भी लगता है कि प्राचीन समय में चलने वाली गुरुकुल व्यवस्था आज से कहीं ज्यादा बेहतर थी। क्योंकि उस समय शिष्य की शिक्षा पूरी होने तक शिष्य केवल अपने गुरु के सानिध्य में ही रहता था। सुदामा जैसे गरीब ब्राह्मण को भी गुरु संदीपनी ने वही शिक्षा दी जो उस समय में राजवंश से संबंध रखने वाले कृष्ण को मिली यानि कि उस समय गुरु शिष्य को शिक्षा देते समय यह नहीं देखते थे कि कौनसा छात्र अमीर है और कौनसा गरीब।
उस समय सभी शिष्य शिक्षक के लिए एक समान होते थे और उन्हें गणित, व्याकरण, वेद, संस्कृत भाषा, व्यवहारिक ज्ञान, सद्आचरण और हमारे धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन करवाया जाता था। इसके अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्र शिक्षा, बुनियादी शिक्षा भी दी जाती थी जिससे छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने पर वे अपने-अपने हुनर के अनुसार और अपने परंपरागत व्यवसाय को अपनाकर अपना जीवन-यापन आसानी से कर लेते थे। आज की शिक्षा बेरोज़गारी को बढ़ावा दे रही है। क्योंकि आज के शिष्य अपने परम्परागत व्यवसाय को अपनाना ही नहीं चाहते है। ना ही उनकी शिक्षा उन्हें इस योग्य बनाती है ।
गुरुकुल में शिक्षक एवं शिष्यों का जीवन पूर्ण सादगी से भरा होता था। कम से कम संसाधनों में काम चलाना तथा आश्रम का प्रत्येक कार्य शिष्य स्वयं ही करते थे। यहाँ तक कि गुरु का प्रत्येक कार्य भी शिष्यों के जिम्मे होता था। जिससे उनमें सेवा, सम्मान, सहयोग और अनुशासन जैसे गुण स्वत: ही आ जाते थे। तथा प्रत्येक बालक अपने में एक मुख्य गुण आत्मनिर्भरता को आत्मसात लिए होता था। शिष्य का शिक्षण काल में माहौल पूरी तरह से शिक्षामय होता था। इसलिए आज हमें शिष्य और गुरुओं के संबंधों में घटती गरिमा और सम्मान को पुन: स्थापित करना होगा।
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शिक्षकों को अपने शिष्यों के व्यक्तित्व में सुधार करने की बहुत आवश्यकता है ताकि वह शिक्षकों के सामने एक आदर्श छवि, एक आदर्श रहन-सहन, अनुशासन, गरिमापूर्ण व्यवहार कर सकें और उसमे किताबी ज्ञान के अतिरिक्त भारतीय संस्कार, मूल्यों का भी समवेश करें।
इधर छात्रों और अभिभावकों में भी सुधार की बहुत आवश्यकता है। अभिभावक छात्रों की आधुनिक गजेट्स से दूरी बनवाएं । आधुनिक उपकरणों के माध्यम से आज शिक्षण तो हो रहा हैं परन्तु गुरु शिष्य का संवाद ना के बराबर हो चुका है। तभी तो आज के युवा पथ भ्रष्ट हो रहे है क्योंकि गुरु ही शिष्य के सच्चे मार्ग दर्शक होते है। जब मार्गदर्शक की उपस्थिति ही शिष्य के जीवन में गौण हो गयी है तो हमारे युवा यानि (हमारे देश का भविष्य) कैसे होंगे ? इसलिए अभिभावकों को चाहिए की वे बच्चों में गुरु के प्रति सम्मान की भावना को स्थापित करे। तथा केवल किताबी शिक्षा की बजाय समाजिक मूल्यों और संस्करों को भी अपनाने के लिए समझाये।
तथा प्रत्येक शिक्षक और शिष्य में गरिमामयी संवाद स्थापित होना चाहिये। और सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि बालकों को बुनियादी शिक्षा अवश्य दे । क्योंकि आज भौतिकवादिता की अंधी दौड़ के कारण हमारे देश में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और अनेक अपराधिक घटनाएँ बढ़ती जा रही है।
और इन सबको रोकने में सबसे मुख्य भूमिका गुरु की ही होती है। इसलिए हमें वापस गुरु और शिष्य के सम्बंध की गरिमा को स्थापित करना होगा जिससे हमारी युवा पीढ़ी सही मार्ग की ओर जा सके तब ही एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण होगा।
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