विश्वास से बंधी परिवार की डोर - by Pinki Khandelwal
क्या थे रिश्ते,
और क्या बन गये,
न पहले की तरह प्यार रहा,
और न वो अपनापन,
अपनी ही दुनिया में मस्त हैं,
न फिक्र है घर की,
न अपनों की,
बस अपनी खुशियों से ही मतलब है,
नहीं दिखाई देता उसके आगे,
क्या हो गया इन सबको,
कहां लुप्त हो गया आखिर वो अपनापन,
सोचता हूं तो हैरानी होती है,
क्यो भूल गए ये लोग,
अपने संस्कारों को,
कहां गयी वो मानवता,
क्या इतने आधुनिक हो गये हम?
कि भूल गए अपने आदर्श,
और अपनों का मतलब,
क्या इतनी कमजोर थी वो डोर?
जिससे बंधा था ये परिवार,
और उनके बीच का वो प्रेम,
नहीं समझ आता मुझे,
क्या इतनी कमजोर थी वो डोर।
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