नारी शिक्षा - by Ritu Agrawal


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शिक्षक दिवस लेखन प्रतियोगिता

प्रतियोगीता संख्या - 2

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प्रतिभागी का नाम - Ritu Agrawal


प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्रियों को देवी का दर्जा दिया जाता था। स्त्रियों को समाज में पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान प्राप्त था। उनकी शिक्षा-दीक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाता था।प्राचीन भारत में स्त्रियां आध्यात्मिक शिक्षा लेती थीं। अस्त्र शास्त्र की शिक्षा भी लेती थीं ,राज्य कार्य भी चलाती थी और गृह कार्य की दक्षता तो उनमें होती ही थी। घर और समाज के प्रत्येक कार्य में उनकी बराबर की सहभागिता होती थी। चाहे वह यज्ञ, हवन, व्यवसाय ,देशाटन ,शादी - विवाह कोई भी बड़ा निर्णय हो ; उसमें स्त्रियों की राय अवश्य ली जाती थी । यहां तक कि अपना वर चुनने का अधिकार भी स्त्रियों को स्वयंवर द्वारा दिया जाता था।


जब दूसरे देशों से आक्रमणकारियों का भारत में आगमन प्रारंभ हो गया तो विदेशी शत्रुओं, से स्त्रियों की सुरक्षा हेतु उन पर कई तरह की पाबंदियां लगना प्रारंभ हो गया। जिस कारण स्त्रियों की स्थिति समाज में; धीरे-धीरे शोचनीय होती गई। शनै - शनै समाज में कुप्रथाएँ आती गईं और हमारा समाज, पुरुष प्रधान होता गया। स्त्रियों को घर की चारदीवारियों में कैद कर दिया गया एवं उनका कार्य ; पूरे घर की सेवा और बच्चे पैदा करना तथा उनके लालन-पालन तक सीमित कर दिया गया। उन्हें प्राथमिक शिक्षा के मौलिक अधिकार से भी वंचित कर दिया गया। स्त्रियों की स्थिति निरंतर गिरती चली गई और एक समय ऐसा आया, जब लोग लड़कियों को सिर्फ एक बोझ मानने लगे और स्त्री को सिर्फ काम करने , बच्चे पैदा करने की मशीन तथा भोग की वस्तु माना जाने लगा । 


प्राचीन भारत में लड़कियों को, लड़कों की तरह ही बराबर की शिक्षा दी जाती थी। फिर धीरे-धीरे लड़कियों की शिक्षा पर कम ध्यान दिया जाने लगा और स्त्रियों के अधिकारों के हनन के कारण वे घर में ही सिमट कर रह गईं। साथ ही बाल विवाह , सती प्रथा, पर्दा प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों ने अपनी जड़ें जमा लीं । फलतः लड़कियों की स्थिति सामाजिक रुप से निरंतर कमजोर होती गई।


हम सभी जानते हैं कि मानव जीवन में शिक्षा का बहुत महत्व है। शिक्षा चाहे व्यावहारिक हो, सामाजिक नैतिक ,शारीरिक अथवा मानसिक । सभ्यता के आरंभ से ही ,मनुष्य कुछ ना कुछ सीखता रहा है। अंग्रेजी शासन काल में, शिक्षा ग्रहण करने की इस प्रक्रिया ने एक औपचारिक रूप ले लिया। शिक्षा प्रत्येक इंसान के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यंत आवश्यक होती है। इस दौर में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ सुधार हुआ। सन् १८५४ में तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा स्त्री शिक्षा को स्वीकार्यता दी गई। विभिन्न सरकारी और निजी प्रयासों के कारण साक्षरता की दर 0.2% से बढ़कर 6% तक पहुंच गई। कोलकाता विश्वविद्यालय,  महिलाओं की शिक्षा के लिए अपने द्वार खोलने वाला ,भारत का पहला विश्वविद्यालय था।


आजादी के पश्चात स्त्री शिक्षा के लिए प्रयास और तेज किए गए। विद्यालयों में लड़कियों का अधिक से अधिक दाखिला कराने और उनकी उपस्थिति को निरंतर बनाए रखने के लिए अनेक योजनाएं प्रारंभ की गई ; जिससे माता-पिता अपने बेटे के साथ- साथ बेटी को पढ़ाने के लिए भी प्रोत्साहित हों।


सन् १९४७ में बने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने सिफारिश की, कि उच्च शिक्षा के स्तर पर, महिलाओं की शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जाए। तत्पश्चात भारत सरकार ने महिला साक्षरता के लिए "साक्षर भारत मिशन "की शुरुआत की। इसके तहत लड़कियों के लिए बुनियादी शिक्षा अनिवार्य की गई  तथा स्वास्थ्य, पोषण परिवार नियोजन जैसे फैसले जो उनके जीवन से जुड़े हुए थे ; उन्हें स्वयं लेने के लिए शिक्षित किया गया। सन् १९८६ में बनी 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' में प्रत्येक राज्य को ; उस राज्य की रूपरेखा के अनुसार अपनी शिक्षा प्रणाली की संरचना को पुनर्गठित करने का आदेश दिया गया।लोगों को समझाया गया की परिवार के पुरुष की अकाल मृत्यु पर स्त्री को ही धन उपार्जन करना होता है और अपना परिवार संभालना पड़ता है उसके लिए जरूरी है कि वह बुनियादी शिक्षा प्राप्त की हुई हो जिससे कठिन परिस्थितियों में अपने परिवार का भरण पोषण कर सके।


भारतवर्ष में कुछ कुरीतियाँ अभी भी व्याप्त हैं। जैसे जात - पात, छुआछूत ,लिंग के आधार पर लड़के और लड़की में भेदभाव आदि।
 हमारे देश में आज भी लड़कियों को लड़कों से कमतर माना जाता है इसलिए कई छोटे -छोटे गाँवों में लड़कों की शिक्षा पर तो ध्यान दिया जाता है पर लड़कियों को नहीं पढ़ाया जाता। हाँ, शहरों में स्थिति थोड़ी बदली है ; लोग लड़के - लड़की को समान अवसर देने की कोशिश करते हैं लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या बहुत कम है । गाँव में आज भी लड़की की शादी करना ही हर माता-पिता का उद्देश्य होता है और वह गृहकार्य में दक्ष रहे जिससे अपने पति और उसके परिवार को संभाल सके ।


लड़कियों के लिए पढ़ाई, माता - पिता की प्राथमिकता में नहीं आती। पर सभी विद्वान कहते हैं कि यदि एक लड़की शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है ।लड़की दो परिवारों को जोड़ती है और यदि वह पढ़ी - लिखी होगी तो अपनी संतानों को भी अच्छी शिक्षा जरूर देगी; क्योंकि वह शिक्षा का महत्व जानती होगी। लड़कियों को पढ़ाना बहुत जरूरी है जिससे वे अपने अधिकारों के प्रति सजग हो सकें , आगे बढ़ सकें और अपने पैरों पर खड़ी हो सके। क्योंकि कई लड़कियों को शादी के बाद, घरेलू हिंसा का सामना सिर्फ इसलिए भी करना पड़ता है क्योंकि वे जीवनयापन के लिए अपने पति पर आश्रित होती हैं। अपने पैरों पर खड़ी नहीं हैं और अपने माता-पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती। फलस्वरुप वे प्रताड़ना सहती रहती हैं। इसकी परिणति कई बार लड़कियों की मृत्यु के रूप में होती है ।


तो बेहतर है, हम नारी शिक्षा के लिए अभियान चलाएं । लड़कियों के माता - पिता को जागरूक करें ; स्वयं लड़कियों को जागरूक करें कि शिक्षा सभी का अधिकार है । हर व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है । चाहे वह किसी भी लिंग, जाति, आयु या संप्रदाय का हो। अब जब नई शिक्षा नीति आई है तो उम्मीद है कि उसके द्वारा बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई सकारात्मक योजनाएं आएंगी और वे योजनाएं ठीक तरीके से लागू भी की जाएं। जिससे गरीब माता-पिता अपनी बेटियों को पढ़ा सकें और कई प्रतिभाएं हमारे सामने आ सकें। इस देश की और समाज की तरक्की में अपना योगदान दे सकें क्योंकि नारी शिक्षित होगी तो वह अंधविश्वासों  का भी उन्मूलन करेगी और अन्य लड़कियों को पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित करेगी ।अपने परिवार के सामाजिक और आर्थिक स्तर में वृद्धि करेगी और देश की प्रगति में भागीदार होगी। शिक्षित नारी आने वाली पीढ़ी को भी विकास का मौका देगी और विकसित करेगी।



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