मैं हिन्दी हूं - by Swati Saurabh


मैं हिन्दी हूं,

थोड़ी घबराई हुई- सी हूं।

अपने अस्तित्व के खो जाने के डर से।

कहीं मैं भी सिर्फ किताबों की ,

भाषा बनकर ही ना रह जाऊं।

संस्कृत भाषा की तरह

स्कूलों में सिर्फ ना पढ़ाई जाऊं।

जिस तरह से अंग्रेज़ी को भाव दिया जा रहा है,

हिंदी बोलने पर अपमानित महसूस किया जा रहा है।

मुझे बोलने में लोग शरमाते हैं,

जब अंग्रेजी को मेरे सामने पाते हैं।

अंग्रेज़ी बोलने पर गौरवान्वित महसूस करते हैं,

और मुझे बोलने पर शर्मिंदगी!


मैं राष्ट्रभाषा हिन्दी हूं,

मैं जन -जन  की भाषा हूं।

मैं खुशी बयां करने की जरिया हूं,

किसी के दर्द में आंखों से निकली दरिया हूं।

मैं वही हिंदी हूं ,

 जो अग्रेजों के खिलाफ,

 लड़ी आजादी की लड़ाई ।

आजाद हो गई अंग्रेजों से,

अंग्रेजी से ना हो पाई।


ना सस्ती हो अंग्रेज़ी की पढ़ाई कभी

अमीरों की ना सही

गरीबों की भाषा बनकर तो रहूंगी कहीं

वरना खो ना दूं अपना  अस्तित्व कहीं।

ना खो देना कहीं मुझे झूठे अभिमान में

जिंदा रखना हमेशा मुझे अपने स्वाभिमान में।

मैं हिंदुस्तान की पहचान हिंदी  हूं,

मैं हिंदुस्तान की आवाज़  हिंदी हूं।

मैं राष्ट्र की माता हिंदी हूं,

मैं राष्ट्र का धरोहर हिंदी हूं।


Writer: Swati Saurabh


9 comments:

  1. प्रथम दृष्टि में अतिअद्भूत, आतिउत्कृष्ट, अतिविश्लेषणात्मक एवं वयाख्यात्मक। इस काव्यरचना की जितनी प्रशंसा की जाय वो कम होगी।
    गहन अध्ययनोपरांत दूसरी टिप्पणी अवश्य करूँगा। तब तक के लिए ऐसी उन्नत रचना हेतुहार्दिक साधुवाद।

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  2. श्रृंगार न होगा भाषण से, सत्कारनहोगा शासन से,
    यह सरस्वती है जनता की,पूजो,उतरो सिहासन से।
    इसे शांति में खिलने दो, संघर्षकाल में तपने दो,
    हिन्दी है भारत की बोली,तो अपने-आप पनपने दो।
    वर्तमान का सत्य सरल,सुन्दर भविष्य के सपने दो,
    हिन्दी है भारत की बोली,तो अपने-आप पनपने दो।
    -----------------------------------हिन्दी के शिक्षा की रचनात्मकता और उसकी-प्रक्रिया के बारे में अब तक प्रायः बात नहीं हुई है।हिन्दी साहित्य का प्रकृति, परिवेश और समाज से जो घनीभूत सम्बन्ध है, रचना के क्रम में रचनाकार जीते हैं और प्रकृति, परिवेश और समाज की उन प्रक्रियाओं में प्रवेश करते हैं।एक कुशल रचनाकार ऐसा करते हुए असम्भव और कुछ-कुछ चमत्कारिक लगने वाली अभिव्यंजना से जीवन का साक्षात्कार करते हैं। सार्थक रचना वह है जो पाठकों/श्रोताओं को इस यात्रा में बराबर का भागीदार और सहयोगी बना ले।
    किसी गायक की गायन-प्रक्रिया या किसी अभिनेता की अभिनय प्रक्रिया की तरह ही एक काव्यकार की रचना-प्रक्रिया होनी चाहिए ताकि पाठक या श्रोता उसी प्रकार मुग्ध हो जिस प्रकार से वे तल्लीन होकर संगीत सुनते हैं या सिनेमा देखते हैं। कुछ आव्यख्यातित सी।अभिनय-प्रक्रिया और संगीत-सृजन-प्रक्रिया की तरह ही यह एक गम्भीर रचनात्मक प्रक्रिया है। सहज और तुक वाली रचना तो गलियों और चौराहों पर भी बेदाम बिकते हैं।
    श्रद्धेय कवयित्री सह शिक्षिका "स्वाति सौरभ" की यह काव्यरचना की प्रक्रिया इसी(उक्त में मेरे द्वारा वर्णित) प्रक्रिया की तराज़ू में तौली हुई प्रतीत होती है,अन्यथा वे इतना सुन्दर नहीं लिख पाती--
    जरा गौर करना चाहेंगे--------------------
    ---------------------------–------
    अमीरों की ना सही,
    गरीबों की भाषा तो बनकर रहूंगी कहीं।
    ना खो देना मुझे झूठे अभिमान में,
    जिंदा रखना हमेशा अपने स्वाभिमान में।।
    ----मैं राष्ट्रमाता हिन्दी हूँ,मैं राष्ट्रधरोहर हिन्दी हूँ।
    --------------------------------
    शांतचित मन से पढ़ने/अध्ययन करने पर ही किसी काव्यरचना के भाव की गहराई में गोता लगाया जा सकता है, अन्यथा औपचारिकता पूरी करने के लिए GIF Comment तो लोग बिना पढ़े ही कर सकते हैं।
    कवयित्री ने इस अनुपम काव्यरचना में जितना पसीना बहाया होगा यह तो काव्यरचना की गंभीरता से ही पता लग रहा है। कवयित्री मैंने आपकी रचना को शब्द-दर-शब्द ही नहीं, वरन अक्षर-दर-अक्षर पढ़ी है। इसके अतिरिक्त मैं आपको और कोई दूसरा क्या पुरुस्कार दे सकता हूँ, सिवाय ईश्वर से आपके लिए अंतहीन जीवन की कामना के।
    कवयित्री के इस अनमोल काव्यरचना प्रशंसा के बहुत परे है। प्रशंसा के दो शब्द बोलकर मैं कवयित्री की महानता को कम नहीं करना चाहता। बहुत ऊँचाई को छुओगी कवयित्री तुम।
    श्रद्धावनत।


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    1. बहुत ही उम्दा टिपण्णी
      गजब धन्यवाद के लिए शब्द नहीं हैं
      निशब्द हूं
      सादर नमन

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  6. मेरी टिप्पणी को अपने संज्ञान में लेने हेतु कवयित्री का बहुत बहुत आभार।

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