अन्तिम निशानी : हाड़ी रानी - by Swati Saurabh


ना छूटी हाथों की मेहंदी,

ना मिटा अभी महावर था।

युद्ध -आगाज़ का पैगाम लेकर,

द्वार खड़ा संदेशवाहक था।।


आई है युद्ध की घड़ी,

सरदार का मन आशंकित था।

बिसार ना दें प्रियवर कहीं,

ये सोच ठाकुर सशंकित था।


केसरिया बाना पहन समरवेश में,

अन्तिम विदा लेने पहुंचा सरदार।

देख रानी हुई अचंभित, बोली

क्षत्राणियां करती इस दिन का इंतज़ार।


विजयश्री को प्राप्त करना,

ना मुझे तुम याद करना।

तुम्हारे स्वागत का कर रही इंतज़ार,

प्रिय बस ये बात याद रखना।।


नयनों में उमड़ रहे अंबू,

प्रिय नजरों से छिपा रही।

मन में कर करुण क्रंदन,

सहधर्मिणी धर्म निभा रही।।


युद्धभूमि में चिंतित सरदार,

कहीं प्रियवर ना दें बिसार।

प्रिय अपनी कोई निशानी देना,

पत्र लिख भेजा रानी के पास।।


पत्र पढ़ हुई रानी स्तब्ध,

क्या ऐसी निशानी दूं अब?

कर्तव्य -पथ पर हो अडिग सरदार,

ना याद करें मुझे बार बार।।


लिखा पत्र में, हे प्रिय मैं हाड़ी रानी,

भेज रही हूं तुम्हें अंतिम निशानी।

तोड़ रही सब मोह के बंधन,

अब स्वर्ग में होगा हमारा संगम।।


लंक से निकाल तलवार,

किया अपने ग्रीवा पर वार।

शीश से अलग हो गया धड़,

जमीं पर गिर गया लुढ़ककर।।


देख कुर्बानी हाड़ी रानी का,

रोने लगी वसुंधरा।

धन्य - धन्य यह भारतभूमि,

जहां जन्मती ऐसी वीरा।।


थाल में सजाकर भाल,

पहुंचा सेवक राणा के पास।

देख अचंभा हुआ सरदार,

अविराम बहे अश्रूधार ।।


हाय! यह कैसी भेजी निशानी?

कितनी अद्भुत तेरी  कुर्बानी!

ना भुला सकेंगें कभी हिन्दुस्तानी,

शत -शत नमन तुझे क्षत्राणी।।




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