एवरेस्ट फतह: अरूणिमा का शौर्य - by Swati Saurabh

एवरेस्ट फतह: अरूणिमा का शौर्य


पड़ी पटरी पर क्षतविक्षत,

वपु से बहे अनवरत रक्त।

अंग से अलग पग विदीर्ण,  

थी बेबस और जीर्ण- शीर्ण ।।


दर्द से वो रही कराह,

ना सुन रहा कोई चीत्कार।

ना रुक रही ट्रेन की रफ्तार,

ओह! काटे ना कटती काली रात।।


पेट का अनल बुझाने हेतु,

गड़ाए बैठे हैं नजर रिपु।

पैर कुतर- कुतर खा रहे उंदुर,

बुझा रहे भूख, ना थे सुदूर।।


क्या हार जाएगी तू अरुणिमा?

खत्म होती है क्षितिज की सीमा?

मत भूल घायल शेर की सांस,

होती दहाड़ से भी खतरनाक।।


आ रही दिल से आवाज़,

माननी नहीं है तुझे हार।

गुज़र जाएगी काली रात,

मिटाना होगा कलंकित दाग।।


है शपथ!  है शपथ!

करनी है एवरेस्ट फतह,

अब ना ठहरेंगे ये कदम।

नतमस्तक होगा महीधर।।


एक दिन हार को हराना है,

एवरेस्ट फतह कर दिखानी है।

विकलांगता को मिटाना है,

अब दुनियां को बताना है।।


माना पैर नहीं है अपने,

हैं आंखों में सपने अपने ।

इंतिहा है कदम -कदम पर,

उड़ान भरेंगे बिन पंख पर।


होगी हरेक साजिश नाकाम,

जो ले अगर खुद को पहचान।

हर आंधी में बनकर चट्टान,

बनना है भारतभूमि की शान।।


चंद कदम पर जीत खड़ा,

है  अभी  यम भी अड़ा।

मगर बुलंद हौसला बड़ा,

जा शिखर पर ध्वजा गड़ा।।


गूंज उठी तुंग में आवाज़,

जीत गई अरुणिमा तू आज।

ना विकलांगता है अभिशाप,

अगर ठान ली ना मानी हार।।


है जिद्द अगर कुछ पाने की,

जुनून कुछ कर दिखाने की।

हिम्मत नहीं है इस जमाने की,

बुलंद हौसले से टकराने की।।


ना बिन तपे सूरज दिखता है,

ना बिन जले दीपक जलता है।

आती है धरती जब जिद पर अपनी,

तब आसमां को भी झुकना पड़ता है।।




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