मैं कविता हूँ - by Hirdesh Verma 'Mahak'
ओढ़ती हूँ कभी रंग खुशी का
कभी अश्रुजल से सिक्त होती हूँ
महकती हूँ फूलों की तरह कभी,
कभी उदासियों के शिखर पर होती हूँ
लफ्जों के मोतियों से बनता है रूप आकार मेरा,
हृदय के भावों का श्रृंगार करती हूँ।
ज़र्रे ज़र्रे में छुपा है अक्स मेरा,
मैं कविता हूँ कहीं भी मिल जाती हूँ।
सुनाती हूँ चाँद तारों के किस्से,
साँझ संग लिखती हूँ कहानियाँ।
बयां करती हूँ हाल सबका
बहार,पतझड़, मुझमें सिमटे सारी रागनियाँ।।
कभी तीक्ष्ण प्रहार तो,
कभी नज़ाकत से बात करती हूँ,
कातिब की कलम में जज्बातों की स्याही भरती हूँ,
फिर बन सँवरकर कागजों पर उतरती हूँ।
करुणा, प्रेम, स्नेह और दर्द का सागर हूँ,
मैं कविता हूँ, सतरंगी जीवन की कथा, व्यथा सुनाती हूँ।
नायिका के यौवन में अँगड़ाई लेती हूँ।
पाकर स्पर्श प्रेम का शर्म से लाल होती हूँ।
बाँधती हूँ एहसासों के धागे,
चलती हूँ स्वप्नों से भी आगे,
और मधुर, और मदिर, होती हूँ,
जब प्रेम दरिया में डूबती हूँ।
मंदिम,मंदिम फिर मैं प्रेम जलन में जलती हूँ।
कभी प्रेम आलिंगन तो कभी अधरों
की प्यास में ठहरी हूँ।
तड़पती हूँ मैं, प्रियतम से बिछड़कर
तन्हा रातों में, विरह अग्नि में जलकर फिर,
मैं कतरा कतरा खाक होती हूँ,
मैं कविता हूँ नित नए नए लिबास बदलती हूँ।
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