वृद्धजन का सम्मान - by Madhuri Verma


अभिवादनशीलस्य  नित्यम् वृद्धोपसेविन:,

    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुधर्मो यशोबलम् ।

वैदिक काल से चले आ रहे सूक्तिनिष्ठ इस श्लोक का अर्थ है जिस व्यक्ति की अभिवादन करने की प्रवृत्ति होती है और जो वृद्धजन की सेवा करता है उसके चार गुणों - आयु धर्म यश और बल की वृद्धि होती है । यह शाश्वत सत्य है कि वृद्धजन सदा से पूज्य हैं और सेव्य हैं ।उनकी सेवा ,उनका सम्मान सबसे बड़ी पूजा और सबसे बड़ा धर्म है । 


जीवन यात्रा के मुख्यतः चार पड़ाव हैं बाल्यावस्था ,युवावस्था ,प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था । वृद्धावस्था जीवन का अन्तिम पड़ाव है । यहाँ तक पहुँचते ही शरीर शिथिल ,निर्बल और मन थके हुए राही की तरह हो जाता है ।जीवन जीने के लिए अपने औलाद का सहारा लेना पड़ता है ठीक उसी तरह जैसे शैशव काल में माता-पिता का।इन अवस्थाओं से लगभग सभी को गुजरना पड़ता है ।माता पिता जन्म देने के बाद से अपना सारा सुख छोड़कर बच्चों के लालन -पालन , देख-रेख,शिक्षा-दीक्षा,शादी और उनके गार्हस्थ्य जीवन बसाने में अपना धन तथा सारी शक्ति लगा देते हैं ।उनकी प्राथमिकता में अपने बच्चे और बाद में उनके बच्चे आते हैं । आज की एक ज्वलंत समस्या है कि संयुक्त परिवार से पलायन कर लोग एकल परिवार में संलिप्त होकर अपने बड़े बुजुर्गों को अपने से दूर रख रहे हैं ।यदि कई भाई बहन हैं तो एक दूसरे पर माँ -बाप की ज़िम्मेदारी डालकर अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहें हैं , और नहीं तो माता -पिता द्वारा बनाए घर को बेचकर उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं ।समाज में ऐसे दम्पतियों की अधिकता हो रही है- पत्नियाँ सास -श्वसुर को साथ रखना पसंद नहीं करतीं क्योंकि उन्हें अनुशासन में रहना पसन्द नहीं आता और न तो बड़े बुजुर्गों कि सेवा करना ही अच्छा लगता है। बेटे भी  माता-पिता की ज़िम्मेदारी सँभालने से कतराते हैं और अपने एकल पारिवारिक सुख में किसी तरह की बाधा नहीं चाहते । यह प्रवृत्ति समाज में घोर संक्रामक रोग की तरह फैल रही है जो इन्सानियत के लिए बहुत घातक है ।


वृद्धजन का सम्मान करना चाहिए । वृद्ध माता-पिता को साथ रखना चाहिए ।सभी बच्चों ,युवा पीढ़ी और प्रौढ़ों को भी चाहिए कि अपने परिवार के वृद्धजन की अच्छी देख रेख करें । उनकी दैनिक क्रिया में मदद दें, उन्हें समय से खाना और दवा देने इत्यादि का कार्य स्वयं करें । अपने व्यस्त समय में से थोड़ा समय निकाल कर उनके पास बैठें, उनकी समस्याओं का समाधान करें,उनकी ज़रूरतों को सुने और पूरा करे , उन्हें सोने के लिये आरामदायक बिस्तर तथा उनके मनोरंजन के लिये उनकी इच्छानुसार सुविधाएँ जुटाएँ ।


 यद्यपि अति वृद्धावस्था में सोचने , समझने और स्मरण करने की क्षमता क्षीण होती जाती है,स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है फिर भी उन्हें उसी प्रकार की सेवा और सम्मान की आवश्यकता है जैसे बचपन में  उन्होंने किया था । 


बड़े बुजुर्गों के साथ अच्छा व्यवहार करने से अपने बच्चे भी  बड़े होकर वैसा ही व्यवहार अपने बड़ों के साथ करते हैं ।वृद्धजन परिवार के संस्कार की नींव होते हैं ।बाबा-दादी, नाना-नानी से सुनी कहानियोंऔर बताये गये जीवन के मूल्यों के बल पर बच्चों में अच्छे चरित्र का निर्माण होता है ।


यह तो अपने पारिवारिक वृद्धजन की बात हुई, आचरण से तो वृद्धोपसेवी होना चाहिए ।हमारे सामाजिक दायरे में भी यदि कोई वृद्ध निर्बल, असहाय ,अस्वस्थ या भूखा दिखता है तो जितना बन सके उसकी आवश्यकता पूरी करना श्रेयस्कर है ।


सफ़र में या कहीं किसी लाईन में लगकर प्रतीक्षा करने वाले वरिष्ठ व्यक्ति को  प्राथमिकता देकर हम उन्हें ख़ुशी दे सकतें हैं । वृद्धजन के मुख से निकला आशीर्वाद ईश्वर के वरदान जैसा होता है। इसीलिए वृद्धजन का चरण स्पर्श कर प्रणाम करने की परम्परा चली आ रही है ।


    इन सभी व्यवहारों का पालन करते रहने से न केवल वृद्धजन ही प्रसन्न होते हैं बल्कि पूरा परिवार सुख चैन से रहता है । ऐसे लोगों की समाज प्रशंसा करता है और वो औरों के लिये अनुकरणीय भी हो जातें हैं ।


मेरी यह रचना उन सभी युवा पीढ़ी के लिए समर्पित है जो एकल परिवार में सुख से रहकर अपने वृद्ध परिजन को भूले बैठे हैं । 



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