मेरा गाँव : मेरा बचपन - by Madhuri Verma
ये टीले पर खड़ा सुंदर सा मकान !
ये मेरे गाँव का अपना घर है ,
जिसे मेरे बाबा ने बनवाया था ।
ऊपर मुँडेर पर लिखा था बाबा दादी का नाम ।
हाय !अब नहीं है इसका नामों निशान ।
कहाँ गया वह सुंदर सा मकान !
ये तस्वीर मेरे भाई ने खींचा था
यहाँ हम सबका बचपन बीता था ।
पास ही पकड़ी के पेड़ के नीचे ,
दो कमरों की पाठशाला ,
पंडित जी की छड़ी का इशारा,
गूँज उठता था गिनती और पहाड़ों का दुहराना।
पास ही थी बड़ी सी गड़ही ,
जिसमें भैंसे तैरा करती थीं ।
सब कुछ याद आता है मन को दरका जाता है।
याद आता है मई जून का महीना
जब गर्मी की छुट्टियाँ बिताने ,
बाग़ीचे में फले आम खाने,
सभी इकठ्ठे होते थे गाँव के इस मकान में,
हमारा बड़ा सा परिवार था ।
मॉं , बड़ी मॉं, चाची ,बूआ ,बड़ी बहनें,
चचेरे ,फुफेरे भाई-बहन सभी सगे थे सभी थे अपने ,
लाला का हुक्का,बड़े बाबूजी की बीड़ी ,
बाबूजी की मुस्कान ,चाचा का ग़ुस्सा क्या कहने ?
सब कुछ याद आता है ,दिल में दर्द भर जाता है।
याद आता है वह हर बुद्धवार
जब तेलिया चाट वाले का होता था इन्तज़ार
अधन्नी इकन्नी दुअन्नी चवन्नी अठन्नी में ही मिलती थी
जी भर प्याज़ -बैगन की पकौड़ी ,सेव खसिया ।
याद आता है घोड़े के गले में बजती घुँघरू की धुन,
फिर दरवाज़े पर इक्के का रुकना
जौनपुर वाली बूआ का सपरिवार आना ।
अनगिनत ख़ुशियाँ ,एक साथ खाना
बग़ीचे मे जाना,कभी नाच कभी गाना
ओला पाती खेलना ,पूरे गाँव में चक्कर लगाना
*******************
पचास साल बाद वापसी का ये मंज़र ....
अब वो कुछ भी नहीं दिखा
ना वो पाठशाला ,ना गड़ही ,ना बग़ीचा
नये घर बन गये ,पगडंडियाँ सड़कों में बदल गईं ।
ना चाट वाले की घंटी ,ना इक्के की घुँघरू ,
कहीं दूर से मोटरसाइकिल पर बैठ करआते
भद्रपुरुष,अनजाने लोग ,अनजानी सी राहें ,
ढूँढती रह गई अपना बचपन,
जहाँ हर घर में एक चाची एक दादी हुआ करती थीं,
अब उनमें से कोई भी नहीं था ।
काल के चक्र ने सबको विदा कर दिया था ।
नये लोगों को अपना परिचय देना पड़ा ,
क्योंकि अब तो वो मकान नहीं था खड़ा ।
वह मकान एक चहार दिवारी में बदल गया था ।
उस गहरे दर्द का अहसास हुआ ,
जिसे कभी मैंने जिया था ।
सारी वो यादें आँखों के रास्ते पिघलने लगीं,
लुटी सी ,ठगी सी , निशब्द मैं खड़ी रही ।
No comments