धर्मनिष्ठ छत्रपति संभाजी महाराज - by Swati Saurabh


स्वराज्यरक्षक धर्मवीर संभाजी,

छत्रपति ज्येष्ठ पुत्र शिवाजी।

सहस्त्र शस्त्र शास्त्रों के ज्ञाता,

परमप्रतापी धर्मनिष्ठ थे छावा।।


महापराक्रमी हर समर अजीत,

अपराजित शम्भु  क्षितीश।

मुगल विस्तार में बाधा शूरवीर,

लिखे ग्रंथ बुधभूषण,नखशिख।।


औरंग ने लिया शपथ,

ना किमोंश चढ़ेगा सर।

संभाजी को पराभूत कर,

गिरफ्तार ना करता जबतक।।


हुआ छावा के साथ छल,

गिरफ्त में संग कविकलश।

औरंग ने दिया एक प्रस्ताव सुन,

जान बख्श दूंगा, है इस्लाम कबूल।


रखा प्रस्ताव धर्मनिष्ट समीप,

धर्मान्तरण कराने को निकृष्ट अधीर।

गंगा-यमुना तोड़ने को तहज़ीब ,

अखंड- भारत को धर्मकेतु अडिग।।


 प्रस्ताव  तेरा मुझे  मंजूर नहीं,

धर्म है आस्था,जो बदलती नहीं।

चाहे करले तू कितने भी सितम,

मै ना करूंगा कभी धर्मपरिवर्तन।।


पहनाकर  वैहासिक परिधान,

घुमाया नगर जंजीरों से बांध।

बरसाए गए प्रस्तर और शोले,

देख यातनाएं  धरती भी डोले।।


पूछता हूं पुनः एक बार,

है मेरा शर्त स्वीकार?

कर ले अधम जितना अत्याचार,

जवाब मेरा वही हर बार।


दर्पित को था दंभ बड़ा,

बनकर भूभृत शंभू खड़ा।

आंखों में गर्म डाला छुर,

कहां विचलित पर होता शूर?


बाजू काटी, चरण भी काटा,

निष्ठुर औरंग्या तनिक ना कांपा।

धीरे -धीरे उंगलियां रेत,

गरजा अंबर पीड़ा देख।


मैं हिन्दू, लूं जन्म सौ बार यहीं,

करता धरम का सौदा नहीं।

हे अधमी कर तू जितने अत्याचार,

मगर हारेगा तू उतने ही बार।।


मेरा होता पुत्र कोई तुझ समान,

मुगल सल्तनत का पूरा हिन्दुस्तान।

अगर मेरी शर्त स्वीकार नहीं,

तो अब तेरी जुबां भी नहीं।।


चमड़ी उधेड़,करकंटक निकाल,

अगणित कुत्सित करे अत्याचार।

मगर विचलित धर्मराज नहीं,

औरंग्या -शर्त स्वीकार नहीं।।


निकाले तनु के परत- परत,

उस पर नमक छिड़क- छिड़क।

आकुल होकर करे रुदन फलक,

विकल नीरद बरसे गरज -गरज।।


कूकृत्य देख कृतांत शर्मशार,

हुआ मानवता का संहार।

वसुमती हुई लहू लुहान,

गगनचारी देख करे विलाप।।


तुलापुर- निमग्रा  का रंग लाल,

जोड़ टुकड़े किए  अंत्यसंस्कार।

गया व्यर्थ नहीं  छावा बलिदान,

विद्रोह ज्वाला से जगा हिन्दुस्तान।।


थी मुगलों के अंत की शुरुआत,

ना हो सका औरंग स्वप्न साकार।

महाराष्ट्र में ही बना अरि -श्मशान,

दफन किया वहीं मुगल साम्राज्य।।




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