आतप - by Mamta Richhariya


आतप


आसमान में खिली है आतप

जैसे दिनकर करता हो तप

बरस रहे हैं खूब तीखे बाण

जैसे ले लेंगे सबके ही प्राण।


गगन से बरस रही है आग 

हो गया हो जैसे कोई सुराग

दुर्लभ हो रही मिलना छांव

व्याकुल हैं शहर और गाँव।


ऐसी दुपहरी खेतों में बिताये

सबके लिए वो अनाज उगाये

आतप,आंधी,बारिश सह जाए

अंतस में सिहर-सिहर वो जाए।


उसकी मेहनत जब रंग लाती

स्वेद की बूँदें फिर झिलमिलाती

खेतों में बरसता है फिर सोना

हलधर ने जो सींचा था कोना।




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