रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान - by Vijay Kumar Tiwari "Vishu"


रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान


रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान ,

सब दिन होत ना एक समान।


जनम लिए कंचन काया संग,

बढ़ता गया तन भी माया संग,

कंचन भरता छल करता तन,

झूठ  फरेब  का है साया संग,

धन दौलत ये छोड़के एकदिन, 

जाएगा शमशान ।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान ,

सब दिन होत ना एक समान।।


हरिश्चन्द्र   महाराज   प्रतापी ,

दान दिये सब स्वप्न में आपी,

समय का पहिया ऐसा घूमा,

चाकरी करें कफन को नापी,

लाश लिए सुत तारा बिलखे,

मरघट लेत निशान ।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान,

सब दिन होत ना एक समान।।


रामचंद्र के राजतिलक की,

एक पल खुशियाँ छाई थी,

मिला चौदह  वर्ष वनवास,

दशरथ  ने प्राण  गँवाई थी,

महाबली भी पड़ा रह गया ,

धरा पे लहूलुहान।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान,

सब दिन होत ना एक समान।।


महाभारत  का  बना  विजेता,

इन्द्रजीत  सम  रण में लड़ता,

भीलनी से जब लूटी गोपिका,

पार्थ भी खड़ा रहा कर मलता,

कहाँ गया वो शक्ति वीर का ,

वही धनुष वही बान ।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान,

सब दिन होत ना एक समान।।


ऊपर   बैठा   बड़ा   मदारी,

नीचे  नाचैं  सब नर - नारी,

लाख जतन तूँ करले प्राणी,

उसके सम्मुख दुनिया हारी,

वक्त के हाथों गिरवी है सब,

समय बड़ा बलवान।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान,

सब दिन होत ना एक समान।।


राज  मिले  क्यूँ  इतराए रे,

दुख   से  काहें   घबराए रे,

देख बदलता मौसम भी है,

पापी   मनवा   भरमाए  रे,

सुख-दुख तो आता जाता रे,

जैसे साँझ बिहान।

रे ! बन्दे क्यूँ करता अभिमान,

सब दिन होत ना एक समान।।

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