अवनि : तब और अब - by Swati Saurabh
अवनि : तब और अब
देखा था मैंने तुम्हें अवनी तब,
नव वधू- सी ओढ़ धानी चुनर।
पड़ती उषा की पहली किरण,
फुट जाती तुम हरीतिमा बनकर।।
हर मौसम में नूतन रूप बदल,
चितवन से देखता नीलाभ गगन।
छम- छम बहती अनघ प्रवाहिनी,
बहा करते निर्मल निर्झर पवन।।
कुसुम पल्लव विभूषित द्रुम,
अपनी सघन छांव में बैठाकर।
हर लेते मुसाफिर की श्रान्ति,
अनुराग भरी वल्लरी फैलाकर।।
और देख रही आज तुम्हें जब,
मलिन हो गया है तेरा आंचल।
ना समीर भी है स्वच्छ आज,
गुमसुम-सी रहती धरा उदास।।
ना अब दिख रहे कांतार,
विरले ही दिखते खेत खलिहान।
बस सुनाई देती है द्रुम चीत्कार,
जो सह रहे कुल्हाड़ियों के वार।।
दूषित हो गई चंचल शैवालिनी,
घूट- घूट कर जी रहा आदमी।
चेतनाहीन मनुज ना जगा आज,
तो भुगतेगा कर्मों का दुष्परिणाम।।
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