बिन पावस बरसात - by Lokesh Kumar Upadhyay
बिन पावस बरसात
आख़िर मध्य बैसाख को
पावस-सा बना ही दिया
टप-टप करती बूंदें
अनायास ही छलक उठती
और यूँ चलने लगती जैसे
कोई नवोड़ा थिरक रही
हो आँगन में,,,
'बदली' भी दिखने लगती
जैसे नवोड़ा का मुखड़ा छिपा
हो घूंघट के आशियाने में,
'बयार' भी लगने लगी
सावन की मल्हार-सी,
बूंदों का मन्द मन्द गति
से इठलाकर बरसना
ऐसा लगने लगा
मानो नवोड़ा की पायल
की झंकार की मधुरता
से कानों में झनझनाहट
होने लगती इस कदर
जैसे कोई विरहिणी के
राग अलाप की शुरुआती धुन .....
आख़िरकार बैशाख को
सावन-सा बना ही दिया,
जिसकी बयार चलती थी
गर्म 'लू' के थपेड़ों के साथ
ताप भी रहता चरम पर
आज उसी माह को बना
दिया 'सावन-सा' जिसमें
पेड़ भी झूमने लगे,
शाखाएँ बलगईयाँ डालने
लगी इस क़दर मानो
तीज के त्योहार पर आई
नवोड़ा का मिलन हो
रहा है सखियों के संग,
आख़िरकार बैशाख
को पावस-सा बना ही दिया......
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