गाँव की यादें - by Deendayal Shukla
गाँव की यादें
गांव की महकती मिट्टी से वह अप्रतिम प्रेम आज भी है ,
बहती थी पावन नदी जहां सूना वह घाट आज भी है ,
बागों की हरियाली अमिया इमली का स्वाद सुहाना था
दधि भोर भए ही मथने की कानों में शोर आज तक है ।।
होते ही भोर खिलाती थी मां रोटी घी गुड़ की ढेली,
ना भूल सके हैं आज तलक काली कोयल की भी बोली,
माटी के चूल्हे की रोटी सरसो का साग महकता था
है याद अभी तक कुर्ता फाड़ और कीचड़ गोबर की होली ।।
गालियां भाभियों की नटखट , धूल से भरे गलियारों में
काले गोरे का भेद छोड़ था अद्भुत सनेह था यारों में ,
पीपल के तले सभा की भी होती थी चोहल बुजुर्गो की
दिन भर बैठ के प्रपंच करें , हम से का मतलब नारों से ।।
हम गए भूल उस मटके के पानी का स्वाद अनोखा था
थाली में भात डाल बाटी गाय का दूध और चोखा था ,
चुरण की पुड़िया पाने को हर रोज मचलता यह मन था
गांव है बसा मानस में भी कोई मन पुरवइया सा बहता था ।।
No comments