मैं मधुमास नहीं मानूँगी - by Shikha Saxena
मैं मधुमास नहीं मानूँगी
मैंने कितनी बार कहा है, एक नहीं सौ बार कहा है,
एक फूल जो खिला बाग में, मै मधुमास नहीं मानूँगी।
बाहर से हम मुस्काते हैं, घर जलता है भीतर-भीतर,
एक महल ही सजा अगर, मै नवश्रृंगार नहीं मानूँगी।
ये कैसी वर्षा ऋतु आई, सागर भर गए गागर तरसे,
उस स्वाति की कीमत कितनी, जो प्यासे के होंठ न हरषे।
बगिया का हर पौधा झूमे, तभी तो पावस ऋतु कहलाये,
किसी एक की ख़ुशी देखकर, सब को तृप्त नहीं मानूँगी।
एक फूल और काँटे कितने, कैसे गंध छिपाए अपनी,
दिवास्वप्न में जो जीते हैं, उनकी दुश्मन दुनिया अपनी।
काम किसी के आ ना सके हम, जीवन बीता ऐसा अपना,
एक होंठ के हँस जाने को, सबका हास नहीं मानूँगी।
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