देखा क्या ऐसा रूप कहीं - by N. Shanti Kokila


देखा क्या ऐसा रूप कहीं


देखा क्या ऐसा रूप कहीं,

जो समा न सकता आँखों में।


जो बनकर गीत बिखरता हो,

जो पाकर स्नेह निखरता हो।


बन कर वसंत ऋतु खिलता हो,

यौवन की नव-नव शाखों से।

देखा क्या ऐसा रूप कहीं?


जो जगता हो बन अभिलाषा,

हो गूँज रहा मादक भाषा;


मन में कुछ रह-रह होता हो,

जो खुले न स्वर के पंखों में।

देखा क्या ऐसा रूप कहीं?


जो बनता हो निशि में सपना,

सब कहते हो जिसको अपना,


जिसकी उपमा जग में दुर्लभ,

जो मिले न खोजे लाखों में

देखा क्या ऐसा रूप कहीं?

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