तुम नहीं समझते - by Samiksha Tiwari


तुम नहीं समझते


तुम क्यों नहीं समझते मेरे मन की प्रीत

तुम क्यों नहीं जानते हो मेरे हिय के मीत

हर बार समझना मुझे ही पड़ता है

हर बार मुझे ही जानना पड़ता है

ऐसा क्यों होता है, क्यों करते हो तुम

मेरे अधरों पर रह जाती है सदैव प्यास

तुमसे प्रेम पूर्ण कथोपकथन की

परन्तु तुम उलझें रहते हो,

झंकृत रहते हो, जीवन के झंझावतों में

तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती मेरी रमणीयता पर

करती हूं उलाहना तुम्हारे इस रूप की

नहीं प्रिय मुझे तुम्हारी ये साँझ और धूप सी

चाहती हूं मैं एक उजला सवेरा तुम्हारे प्रेम का

खिलना चाहती हूँ पुष्प बनकर तुम्हारे उपवन में

कभी तो समय की धारा से अलग बह जाओ

कभी तो अपनी नाव मेरे प्रेम सागर में बहाओ।

आओ न दूर तक चले कही तारों की छाँव में

जहां धरती का संगम हो दूर आसमा से

क्या करोगे मेरे लिए ऐसा, प्रश्न करती हूं?

उत्तर में हाँ की अपेक्षा रखती हूं।हाँ!

बोलो न प्रिय मिलन होगा न हमारा

ज्यों चाँद की चाँदनी का,राग की रागिनी का

बंसी की तान का,कान्हा की राधा का।

हाँ! बतला दो न मुझे अपने भाव जता दो

करती हूं प्रतीक्षा और करती रहूँगी

कभी तो आओगे मेरे अनुराग में तुम।

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