व्यथा - by Shyam Singh


व्यथा


लाख व्यथा हो मन में फिर भी,

तुम किसी को व्यथित न करना।

इस युग के तुम नए मनुज हो,

जाति-पथ तुम न चलना।


सब रूढ़ियों को करना किनारे

भ्रमित परंपराओं में न पड़ना।

समाजवादी समाज बनाकर,

नवयुग    निर्माण    करना ।


सत-कर्म का करना समर्थन,

झूठ का पल्लवन न सहना।

शान्ति-प्रस्तरों से ठोकरें खाकर,

युद्ध के दल-दल न फंसना।


जीवन में कितना विरोध है,

सभी का तुम शोध करना।

एक बूंद की प्यास की खातिर,

भरी गगरिया छेद न करना।

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