धरा और मनुज - by Dr. Shyam Lal Gaur


धरा और मनुज


सांसे हो रही निरन्तर कम,
वृक्ष लगायें मिलकर हम।
वृक्ष यदि नहीं रहेगा,
कौन हमें मनुज कहेगा।।


मनुजों की हम संतान हैं,
वृक्ष हम सबके प्राण हैं।
मिलकर हम रक्षित करें,
अपने को सुरक्षित करें।।


प्रकृति आज कराह रही, 
तरह तरह से डाह रही।
नहीं आह सुनायी पड़ती।
इसमें धरती की कहाँ गलती।।


वसुधा के काट पंख सारे,
कर दिया निर्बीज धरा रे।
क्या क्षमा करेगी धरती,
या दण्ड धरेगी धरती।।


प्रकृति ने सब कुछ तो दिया, 
हमने दुरढंग से फिर क्यों लिया।
जब कष्ट हम से पायेगी , 
क्या पुष्प हम पे बरसायेगी।।


हमने अपनी सभ्यता खोई, 
क्यों अक्ल हमारी सोई।
मनुजों से दनुज बनें पड़े,
चहुँ ओर वृक्षों के धडे़ पडे़।।


जल ही जीवन जल ही सपना, 
बचे रहें तो सच होगा सपना।
धरा दुहेगी इसी तरह आज,
नष्ट हो जायेगा मनुपुत्रों का राज।।


गर्मी सर्दी का नहीं ठिकाना, 
कब हो इसका आना जाना।
क्या बचेगा क्या छिनेगा,
क्या दाना पानी बचा रहेगा।।


नष्ट होना चाह नहीं अपनी,
बची रहे वसुधा अपनी,
अस्तित्व वचा सकें अपना,
बचे रहें जो देखें सपना।।


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