कैसे कहूँ आज़ाद हूँ - by Nirupa Kumari


कैसे कहूँ आज़ाद हूँ


आज सोचने बैठी की आज़ादी क्या है

सोचा ज़मीन से पूछूं....

वो बोली - मै कैसे बताऊं

मैं तो खुद ही सीमाओं में बंधी हुई हूं

हर जगह बटी हुई हूं

तुम मनुष्यों ने ही मुझे बांटा है

उन्हीं से पूछो,बाटने बटने से क्या आज़ादी कोई पाता है


फिर मैने सोचा नदी से पूछूं

तो वो बोली - मुझसे क्या पूछती हो

मैं तो वो हूं जिसकी लहरे रोज़ बांधो से जूझती हैं

अपने उन्माद को फिर से पाने का रास्ता ढूंढ़ती है

जगह जगह कचरों के ढेर में खोती,नदी से नाला होती हैं


जवाब की चाह मुझे पंछियों के पास ले गई

जब मैंने उनसे पूछा तो वो भी हो 

उदास कह रही

सुना तो था कभी,पर मुझे इसका अनुभव मिला नहीं

खुले गगन में जी भर कहां उड़ पाती हूं

हर पल यान और मिसाइलों ,और धुएं से घबराती हूं

अपना मनचाहा आशियाना बनाने को एक 

पेड़ ही बड़ी मुश्किल से पाती हूं

वो भी कट ना जाए,हर पल घबराती हूं

डर में ही जीती हूं,आज़ाद कहां हो पाती हूं


फिर पूछा मैंने पवन से...

इसी विश्वास से की उसे तो जरूर पता होगा

भला उसे कब किसने रोका टोका होगा

पर वो बोला,बनकर भोला

मैं नहीं अपनी दिशा और दशा अकेले तय कर पाता

मुझे तो नदियों, पेड़ों का साथ है भाता

जहरीली हवाओं से मैं भी घबराता

पर अब मैं भी उनसे जी भर मिलने को

तरस हूं जाता

पेड़ तुमने काट दिए

नदियों पर पहरे बिठा दिए

ऐसे में कैसे हम खुल कर जियें

आज़ाद खुद को क्युंकर कहें


आज़ादी को समझने के प्रयास में

मैं आज हुई हताश हूं

निराश हूं

सबकी आज़ादी छीनकर 

मैं कैसे कहूं...

मैं आज़ाद हूं

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