जाड़े की धूप - by Anuradha Yadav


जाड़े की धूप

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कभी मुस्कुराए, कभी गुनगुनाए,

चुपके से आए चंचल-सी,

मनभाई-सी जाड़े की धूप।।

धीरे-धीरे छत से उतरी,

गली-गली में फैली पसरी।

बच्चों संग खेल रही,

बचपन-सी बौराई जाड़े की धूप।।

चाची, भाभी स्वेटर बनाती,

अम्मा बैठी मटर छीलती।

पतंग के मांझे में मुन्ना के

उलझाई-सी जाड़े की धूप।।

छाया है फिर कूहा घनेरा,

ठंड ने जम कर डाला डेरा।

धूप छाँव की खेले आँख मिचौली,

शरमाई-सी जाड़े की धूप।।

बचपन की यादों-सी,

मेरे मन पर छा जाती।

खपरैलों से दलहानी तक

चुपके से आँगन में आ,

मन को खूब लुभाती जाड़े की धूप।

दिन भर फैली दिन भर खेली,

साँझ ढले फिर लौट गई,

ले कर के अंगड़ाई जाड़े की धूप।


- अनुराधा यादव

भोपाल, मध्य प्रदेश

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