गुब्बारे - by Avishek Trivedi "Avi"
गुब्बारे
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गुब्बारों की तरह ही जीवन चाहता हूँ,
इसलिए रोज़ रंग-बिरंगे लेकर आता हूँ।
आशा से भरे हैं गुब्बारे,
एक बार कोई इनको आकार को निहारे।
ना देखो मेरी उमर,
अभी बाज़ार में हुआ नहीं है असर
आवाज़ में ना करना शक,
बना सकता हूँ हर किसी को ग्राहक।
बोलो कौन-सा रंग दूँ,
कहो तो इनसे मोर बना दूँ।
पसंद है कोई फूल तो बताओ,
कमल या गुलाब ज़रा नज़र तो उठाओ।
बना सकता हूँ ग़ुब्बारों से कुछ भी,
हाथी, घोड़ा या जहाज़ भी।
मेरे हाथों में हैं जादू,
गुब्बारों से बना सकता हूँ साधु।
सब जानते है मेरा हुनर यही है,
शायद बाबा से मिलने वाला बस ज्ञान यही है।
बेच रहा हूँ अपनी खेलने की उमर,
घर पहुँचना है अगले ही पहर।
माँ की मदद भी करनी है,
शायद आज उनकी दवाई भी लेनी है।
हर दिन बाज़ार इसी आशा से आता हूँ,
माँ का इलाज करवाना चाहता हूँ।
चाहता हूँ बेहतर भविष्य अपना भी,
हो नाम स्कूल के बोर्ड पर भी,
जानता हूँ ! कुछ ज़्यादा सोच लिया है मैंने,
पर इरादा निश्चित कर लिया है मैंने।
है भरोसा माँ को ना अब रोने दूँगा।
और देखना यह जितने भी है गुब्बारे…
सारे बेच दूँगा !!
- अविशेक त्रिवेदी “अवि”
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
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