पढ़े डॉ० कुमार वर्मा जी की रचनाएँ - by Dr. Kumar Verma


(1) मेला क्या है मेलजोल है

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बिना दाल न खिचड़ी बनती,

लड्डू      बिन    गुड़   लैया ।

आपस  में  इसलिए  जरूरी,

मेल    जोल      हो     भैया।

        शब्द शब्द  के  मेलजोल से,

        बनती      सुन्दर      रचना।

        नाक   पोंछते   बस्ता  लादे,

        मत    निर्धन   को    हँसना।

रंग   रूप   से   भले  कलूटे,

फटही    नेकर    वाले    हों।

पेट पीठ  में  मिला  जा  रहा,

मिलते    नहीं    निवाले  हों।

        मन से तो खुशहाल दिखेगा,

        नहीं  दिखे पाँवों  के  छाले।

        इसीलिए   मन  करता  पूँछूँ,

        हे भगवन  ये क्या कर डाले?

होड़  लगी  है   लूटपाट  की,

भाग  रही    दुनिया  सरपट।

हँसने में क्यों  मौज  आ रही,

सोच  आज  है बड़ी  विकट।

        सभी जगह तो करें मिलावट,

        कभी   बाज  न  आते  कोई।

        आपस मे फिर मेल मिलावट,

        इस समाज  कब  लाते कोई।


- डॉ० कुमार वर्मा 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश


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(2) माँ के नाम

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प्रेम  भाव, भक्ति  से   दुलारती  है   माँ,

गलतियों  को प्रेम  से  सुधारती  है  माँ।

गलत कदम  बढ़े तो  कभी मारती है माँ,

लेकिन सदा घर द्वार को सँवारती है माँ।।


आत्मा हो, शान्ति , ज्ञानदायिनी हो माँ,

मान दायिनी , सम्मान  दायिनी  हो माँ।

सागर से  बड़ा दिल है आदर्श हो तुम्ही,

हर कष्ट  दमन हेतु  परामर्श  हो तुम्ही।।


अनुभव हो, प्यार हो, ममता, दुलार हो,

वंश  का,परिवार  का  तुम्ही आधार हो।

सुंदर  मधुर  संकल्प हो , तुम्ही राह  हो,

अति उदार,शक्तिमान ,मन की चाह हो।।


एक तुम्ही  हो  धरा  पर जो सम्पूर्ण  हो,

मातु शाश्वत हो ,कोमल हो, परिपूर्ण हो।

माँ की ममता के  कितने हैं  किस्से सुने,

एक "माँ" के  बिना  यह  धरा शून्य  है।।


- डॉ० कुमार वर्मा 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश


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(3) प्रकृति दोहन बन्द हो

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यह धरा,   संपत्ति जम कर  लूट कर,

सब  हमारी   है  यही  कह झूठ कर।

प्रकृति से बढ़ कर  यहाँ  पर कौन है,

फिर भी हम जीते रहे मुँह मोड़ कर।।


सुख गमन दुःख आगमन के चक्र क्रम,

बन  नियम  उपहार   मिलते  रह  गए।

खा  चुके   कितने   थपेड़े   बस   उन्हें,

कोसते    गिरते   सम्भलते   रह  गए।।


हर  अभावों  के   समंदर   लहर  बन,

दंश जैसे  व्योम  में  बादल  सघन हों।

काल  कवलित  हो  गए  नव  रोग में,

अब तो हर दोहन प्रकृति के बन्द हों।।


आज  सब  को ज्ञान  है विज्ञान का,

फिर लगा क्यों खोज में अज्ञान का।

देख  लो  बादल  बिना  बरसात के,

झेलिये गुस्सा प्रकृति नुकसान का।।


- डॉ० कुमार वर्मा 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश


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(4) सपना

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कोई सपनों को रचता सँवरता रहा,

मेघ पानी लिए मौज करता रहा।


मन सम्भलता रहा ऐसे झोंके चले,

काम करने बिना कोई मरता रहा।


आह उर से निकल आँख तक आ गयी,

एक झरना बना और बहता रहा।


प्रीत की रीत चाहत में यूँ ढल गयी,

नेह उगता रहा दिल सँवरता रहा।


एक विहँसी कली फूल बन के खिली,

द्वार ले पालकी भौंरा मरता रहा।


सज के धज के खडी़ द्वार पर भावना,

चाँद सूरज सा सपनों में सजता रहा।


नृत्य करता रहा चाँद मम आँगना,

मैं विकल हो धरा, नभ ही तकता रहा।


वाह सपने में "सपना" भी ऐसा बुना,

लेखनी के बिना कुछ तो लिखता रहा।


- डॉ० कुमार वर्मा

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश


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(5) बताई नहीं

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राज    की    बात   हम   ने    बताई   नहीं।

आग  चिलमन   में    हम  ने   लगाई  नहीं।


दर्देदिल   की   कथा  , सोच  ली  अन्यथा?

लोग   कहते   हैं    दिल   की   दवाई  नहीं।


गीत   उल्फ़त    के    गाता   सुनाता    रहा,

फिर  भी   तुझ  को   मेरी  याद आई  नहीं।


दुःख   सहे   आँसूओं   की  झड़ी  लग  गई,

दिल  की   बातें  जुबाँ  तक  भी  लाई  नहीं।


कभी    जोगन   बनी   कभी   जुगुनू   बनी,

उस  ने    दिलवर    से   नजरें   हटाई  नहीं।


जिसकी किस्मत में कुछ भी लिखा ही न था,

चैन   की    साँस   जीवन   में    पाई    नहीं।


घुट   के    जीते    रहे    घुट   के  मरते  रहे,

बे वजह     हम  ने    दौलत    उड़ाई   नहीं।


ग़म   की   आँधी  चली   दर्द  सब उड़ गया,

आप    बीती   ये   सब  को    सुनाई   नहीं।


- डॉ० कुमार वर्मा 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

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