पढ़े माधुरी मिश्रा "मधु" जी की रचनाएँ ( Madhuri Mishra "Madhu" )


(1) मैं धीरे-धीरे चलती हूँ

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खामोशियों के बीच मैं,
शब्दों को गुनती हूँ।
जो पूछ ना पाई कभी किसी से,
उन शब्दों को चुनती हूँ।
शब्दों की कटुक निबौरी,
मैं धीरे-धीरे सुनती हूँ।
भावों को अपने मैं तो,
आहिस्ता-आहिस्ता बुनती हूँ।
अपनेपन की डगर पकड़ मैं,
चलूँ जो धीरे-धीरे,
राहों के हर काँटो से मैं,
बचकर यूँ ही निकलती हूँ।
ढूँढू कोई ऐसा साथी,
भावों की परख जिसे हो,
उस साथी के भाव पकड़ मैं,
जीवन डगर पे चलती हूँ।
अरमानो संग मचलती हूँ,
मैं धीरे-धीरे चलती हूँ,
मैं धीरे-धीरे चलती हूँ।

- माधुरी मिश्रा "मधु"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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(2) नूतन निर्माण
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नवगीत,नवदीप नूतन निर्माण लिए,
नव - शब्दों का सहर्ष नवगान लिए,
नवल - हर्षमय नव- गीतों संग चलें,
हम हर्षमय गीतों का गुणगान लिए।

महाजागरण का हर्षित सम्मान लिए,
दीन - दुखियों का सर्वस्व त्राण लिए ,
मानवता का मिलकर करें सब कल्याण ,
समग्र जागृत जीवन का अभिमान लिए।

स्वागतम! स्वागतम! नवयुगीन वर्ष ,
स्वर्ण विहान लिए आ जाओ सहर्ष ,
आशा जोहते हम सब जन गण मन,
नव - प्रेरणा के गीतों का अद्भुत हर्ष ,

नई प्रेरणा और नया उत्थान लिए,
नवभारत के ज्वालाओं का गान लिए, 
बढ़ चलो क्षितिज पर तुम क्रांति संग,
अपने प्राणों में बस नव अरमान लिए।

माधुरी मिश्रा "मधु"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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(3) शब्द
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शब्दों की एक गरिमा है ,
उसे ही तो हमें समझना है,
शब्दों की महिमा है अपार ,
इसी के संग तो हमें चलना है।

शब्द यूँ तो तुम हो बड़े व्यापक ,
पर संजों पाएँ बनाना इस लायक,
पकड़ना तुम्हें इतना आसान तो नहीं ,
बस ये भावनाएँ आहत कर पाए नहीं ।

बस मन की शोभा है शब्दों से,
भावों की अभिव्यक्ति है शब्दों से ,
जरा संभल कर बोलना ऐ मुख मेरे,
दिल भी आहत होते हैं शब्दों से ।

मैंने बहुतों को रोते देखा है ,
शब्दों से आहत होते देखा है,
ना बोलो तुम शब्द कभी भी ऐसे ,
मैंने लोगों को जिंदा मरते देखा है।

जल्दी कैसी है ऐ मानव तुझको,
नाप-तोल कर बस बोलो इसको ,
भावों का यदि मान रख सको तो,
जीवन की गरिमा बनी रहे फिर तो।

यदि शब्दों से जुड़ जाए आत्मा ,
तो फिर मिल जाए हमें परमात्मा,
प्रेम भाव की तब बने निशानी ,
सफल हो जाए तब यह जीवात्मा 


माधुरी मिश्रा "मधु"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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(4) यात्राएँ
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सुना है, कुछ यात्राएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं।
स्मृतियाँ, कभी धूमिल नहीं होतीं।
अंतर्मन से रिसती यादें,
कभी-कभी नासूर बन जाती हैं।
माना! स्मृतियों से बड़ी कोई औषधि नहीं,
 परंतु, यादों की असंख्य कटारें,
 जब अंतर्मन पर चलती हैं ,
तब उन घावों की, कोई गिनती नहीं होती।
मैं यादों के, बियाबान में भटकती, 
अभिशप्तता, की पहचान बन अकेली,
 मुक्त होना चाहती हूँ।
आसान नहीं, मुक्ति के पहाड़ चढ़ना,
यादों के वह गट्ठर, पीठ पर नहीं,
अपने सीने पर, लिए चलती हूँ।
मंजिल की तलाश है, 
पर कहाँ, मिलती है सबको ,
कहते हैं, कुछ लोग कहीं नहीं पहुँचते,
 क्योंकि, उनकी यात्राएँ कभी पूर्ण नहीं होती।

माधुरी मिश्रा "मधु"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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(5) भावनाओं की किताब
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मेरे मन मस्तिष्क में, लिखने पढ़ने का,
 जुनून रहा, सवार हरदम,
 मंदिर में ,पूजा करने से बेहतर,
 पूजा है मैंने ,शब्दों की भावनाओं को,
 लोगों के, अंतर्मन को,
 प्रार्थना की है, प्यार से प्यार की,
 पलटा है, अमूल्य किताबी पन्नों को,
 उनके करीब कम ही गई,
 जिन्हें अल्फाजों की ,समझ नहीं,
 हर वह घर ,सूना लगता था,
 जहाँ किताबों का, जमावड़ा न था।
 कागज कलम की शौकीन,
 किताबों से लिपट कर, रो लेती हूँ,
 मैं किताबों को, राजदार बनाकर,
 अंतर्मन की, प्यास बुझा लेती हूँ।
 सीखी ही नहीं, दुनियादारी मैंने माँ से,
 किताबों ने सिखाया, जाने के बाद माँ के।

माधुरी मिश्रा "मधु"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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