पतंग - by Shivdutt Dongre

पतंग

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मैं एक पतंग बँधी हूँ एक डोर से

नियंत्रण है दूर कहीं किन्हीं हाथों में,

उड़ी हूँ आकाश की ऊँचाइयों को नापने,

सपनों की दुनिया में उड़ती विचरण करती,

उड़ती जा रही हूँ ऊँची, ऊँची और ऊँची उड़ान

कुछ सपने, कुछ आशा, कुछ उमंगे लिए

कभी इधर, कभी उधर, कभी दाएँ, कभी बाएँ,

कभी डगमगाते, कभी संभलती

फिर भरती नई उड़ान नए जोश के साथ

अब पा ही लूँगी अपनी मंजिल

तभी एक झटका-सा लगा,

मुड़कर देखा तो

मेरी डोर थी दूर कहीं किन्ही हाथों में,

जैसे मुझे बता रही थी मेरी मर्यादा,

मेरी सीमा, मेरे दायरे

सोचा तोड़ दूँ सारे बंधन सारी सीमाएँ

कब तक बँधी रहूँ इस बंधन से

जो मुझे उड़ने से रोकते हैं,

जो मेरे सपनों को तोड़ते हैं,

सहसा एक आवाज आई

देखा एक कटी पतंग को लूटने

हजारों हाथ आगे बढ़े, नोचा सबने

हिस्से किसी के ना आई

काश डोर से बँधी रहती

संपूर्ण न सही उसका भी अपना आकाश होता,

मैं लौट आई वापस चरखी से लिपट गई

अपनी डोर के साथ।


- शिवदत्त डोंगरे

खंडवा, मध्य प्रदेश

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