एक सच्चाई में - by Digvijay Singh
एक सच्चाई में
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मायुसी का पुतला बन कर रोता नहीं तन्हाई में,
जीने का अंदाज मिला है हर लम्हा कठिनाई में।
मीठा-मीठा दर्द हमें कुछ और मजा दे जाता है,
धीरे-धीरे जख्म हरा जब होता है पुरवाई में।
धो देती है पावन गंगा हर कुरीतियों का धब्बा,
मन भी निर्मल हो जाता है वैसे ही अच्छाई में।
ढूँढ रहे हो ऊपर-ऊपर, कैसे पाओगे हीरा और मोती,
पाना है तो गोता लगाओ सागर की अतल गहराई में।
सोच रहा हूँ राख ना कर दे प्रेम की इस हरियाली को,
ईर्ष्या औ' हिंसा की आग जली है नफरत की अंगराई में।
प्यार का कैसे सुमन खिलेगा, फैलेगी कैसै कर खुशबू,
नीली-नीली काई है फैली आज की हर अंगनाई में।
धरती अम्बर चाँद सितारे सब धुँधले से ही लगते हैं,
या तो मंजर बदल गया है अथवा है कमी बीनाई में।
झूठ का पर्दा चाक न होवे, कैसे नहीं वह मुँह की खाए,
इतना ताकत भरी हुई है कमल एक सच्चाई में।
- दिग्विजय सिंह
समस्तीपुर, बिहार
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