पढ़े शीतल शैलेन्द "देवयानी" जी की रचनाएँ ( Sheetal Shailendra "Devyani" )
(1) सारे रंग दे गया
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पतंग के बदले वो मेरा,
चुरा के संग दिल ले गया।
देखती रह गई हो कर मैं दंग,
और वह जीवन में सारे रंग दे गया।
खुलकर खिल-खिलाई मैं,
जीवन में पहली बार,
हँसी-हँसी में, खुशियों में,
वो सारे के सारे रंग दे गया।
समझ भी ना पाई थी,
अभी उत्सव के रंग कि,
वो मन में उमंग दे गया।
अबोध बाल मन-सा था,
कभी ह्रदय मेरा,
चुपके-चुपके आकर दिल में,
ढेरों जल-तरंग दे गया।
उमड़-घुमड़ लहराए दिल में,
प्रीत के बादल इस कदर,
ऐसा वह पागलपन दे गया।
आती हुई बसंत में जब फर-फराए,
सरसों के वो पीले फूल,
पलाश के गहरे फूलों का,
वो मुझे मानो रसरंग दे गया।
मधुमास की मालती बूंदों की तरह,
कभी मचलता था यौवन मेरा,
वह बनाकर जोगन प्रेम की,
अपने प्रेम का मकरंद दे गया।
प्रेम के अनगिनत अनछुए से थे,
कुछ पल सहेजे मैंने,
इस बार वो मुझे में,
बसंत का मधुबन दे गया।
आकर ठहर गया,
हर एक पल के लिए,
क्योंकि..............
इस बार जोगन से,
सुहागन का सिंदूरी रंग,
वो मेरी मांग में दे गया।
अधूरे पन के एहसास से,
मुक्त हो गई मैं सदा के लिए,
इस बार जाते-जाते मुझे,
वो अपना खूबसूरत संग दे गया।।
- शीतल शैलेन्द "देवयानी"
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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(2) जीवन के रंगों का मोल
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जीवन के रंगों का मोल,
पूछना है तो उससे पूछो।
जिसके जीवन में,
कोई भी रंग नहीं।
बदरंग - सा था जीवन उसका,
जीवन में तनिक भी उमंग नहीं।
ना दीवाली रौनक वाली।
ना ही होली रंगों वाली।
मांग में सिंदूर था,
कभी लाल लाल चमकता,
अब चमकती है उसकी,
कोरी सूनी देह खाली।
ना चूड़ी वो रंग - बिरंगी,
ना चूनरी ही उसकी लाल है।
तन पर भी स्वेत कफ़न,
जो रोज छलनी मन को करता,
फिर भी न हुआ आज तक,
वो रक्त रंजित लाल है।
मन पीड़ा किसे सुनाऊँ,
सबने बंद किए अपने कान है।
रंगों की ना कोई गिनती जहाँ में,
पर मेरे पास फकत रंग मलाल है।
जिसका रंग मेरे जीवन - सा सूना,
जिस पर ना छाता रंग और गुलाल है।।
- शीतल शैलेन्द्र "देवयानी"
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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(3) एक स्वतंत्र देश बनाएँ
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गणतंत्र और स्वतंत्रता का शुभ महोत्सव,
हर वर्ष मनाता सारा हिंदुस्तान है।
गर्व करो अपने इस तिरंगे पर,
यह तिरंगा हम देशवासियों की शान है।
केसरिया है शान हमारी,
प्रीत की रीत यहाँ की जान है।
नमन करो इस वसुंधरा को,
यह मातृभूमि वीरों की पहचान है।
ये देश है त्याग और बलिदान का,
भक्ति, भावना और ज्ञान के अनुराग का।
किया सर्वस्व समर्पण अपना वीरों ने,
उस वीरता की भक्ति के गान का।
विश्व विजयी तिरंगा प्यारा,
लहराता है देखो कितनी शान से।
विश्व गुरु बने यह भारत,
विश्व का नेता चुना जाए अबकी हिंदुस्तान से।
जन - जन का संघर्ष बढ़े पर,
लाए नित दिन प्रगति में रंग।
विश्व स्तर पर नंबर वन हो भारत,
नई नई तकनीकयों के संग।
अनुशासन और एकता की जंग में,
बारंबार इसकी जय - जयकार हो।
विश्व गुरु बन चमके भारत,
हर दिल का सपना साकार हो।
ना कोई कर्ज हो माथे पर,
ना हिंदुस्तान किसी का कर्जदार हो।
फर्ज की राह पर चले हम हिंदुस्तानी,
हर एक सिपाही जंग में आबाद हो।
अनूठा उत्सव हम हर वर्ष मनाएँ,
चलो जय जयकार का कलरव,
सारी दुनिया को सुनाएँ।
भारत कल था और कल रहेगा,
आओ चलो मिल-जुल कर हम,
एक पावन स्वतंत्र देश बनाएँ।।
- शीतल शैलेन्द्र "देवयानी"
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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(4) विरांगना दुर्गावती
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इकलौती संतान निडर वह,
सन 1524 में जन्मी थी।
चंदेल वंश की शान थी वह,
कालिंजर राजा कीर्तिसेन की निर्भय बेटी थी।
अद्म्य साहस की थी वह अवतारी,
दुर्गाष्टमी के दिन जन्मी थी।
सौ - सौ मुगलों पर थी वह भारी,
वह दुर्गा रूप सिंहनी थी।
कौशल थी सभी युद्ध कला में,
पारंगत घुड़सवारी तीरंदाजी में थी।
तलवारबाजी के क्या थे कहने,
सभी अस्त्र - शस्त्र थे उसके गहने।
शाह परिवार की थी पुत्रवधू वह,
गढ़ मंगला कि वह महारानी थी।
मुगलों से डट कर लड़ी वह,
वह राजपूत महिला स्वाभिमानी थी।
बेटा केवल था तीन बरस का,
तब सिंदूर सुहागन ने खोया था।
गढ़ मंडला का उस समय हाल बुरा था,
गढ़ भी शाह के स्वर्गवास पर रोया था।
धैर्य फिर भी नहीं रानी ने खोया,
सपना मुगलों का चूर किया।
संकट की बेला घिर आई,
दृढ़ निश्चय से मन मजबूत किया।
कर निर्माण कार्य जनहित में,
जनता प्रेम उसने अपने नाम किया।
कुएँ , बावड़ी , मठ आदि बनवाकर,
कुशल सुशासन रानी ने खूब किया।
चंडी - सी थी हुंकार उसमें,
आसिफ खान का हौसला डोल गया।
रणचंडी ने दिखा पराक्रम,
शत्रु सेना का हौसला पस्त किया।
नाम अनुरूप थी वह ओजस,
साहस अद्म्य उसमें भरा था।
बाज बहादुर और अकबर से,
मन उसका ना तनिक डरा था।
शौर्य वीरता और सुंदरता की,
वह रानी थी अनगिनत गुणों की।
मारी कटारी स्वयं को थी,
परन्तु परतन्त्रता उसने ना स्वीकारी थी।
सन 1564 में रानी वीरगति को प्राप्त हुई,
एक और शौर्य कहानी उस दिन वहीं समाप्त हुई।
बलिदान दिवस पर कर जारी डाक टिकट,
रण सिंघनी को श्रृद्धांजलि प्रेम पूर्वक अर्पित हुई।
विरांगना दुर्गावती को याद उनके,
अद्म्य साहस के बल पर रखा जाएगा।
अकबरनामा में गुणगान हुआ जिस हुंकार का,
बखान उस वीरता का सर्वत्र किया जाएगा।।
- शीतल शैलेन्द्र "देवयानी"
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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(5) वापस अब हम लौट चलें
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आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
उसी ममता की छाँव में
जहाँ पर होते अम्मा-बाबा,
बैठे होते खाट पर
अमराई की छाँव में,
वही चूल्हे की रोटी होती
दाल रखी होती हंडिया में,
और माँ के प्यार की
दो फटकार होती।
आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
खेत में हार में,
उगती हुई फसलों की पैदावार में,
जहाँ मानुस में प्रेम होता,
प्रेम में तकरार होती,
तेरे मेरे जैसी भावना की
न कोई दरकार होती,
बाबा बापू अम्मा की वही प्यार वाली
खट्टी मीठी सी डाँट होती खाने के संग में,
आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
उन्हीं मंदिरों की घंटियों की ताल पर
फिर से क्यों ना हम झूमे,
सावन में पड़े जब झूले
मन भर फिर क्यों न हम झूले,
बतिया ले बतिया दो चार
सखियों और भौजाइयों के संग आज आ!
आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
यहाँ शहर की चकाचौंध में
दिल पत्थर से हो गए क्यों?
गाँव में तो रो पड़ते थे
देखकर दूसरों की हालत खिन्न-भिन्न,
अब तो आँसू भी सूख गए
जैसे सूखे नदियाँ और ताल,
बहुत रुखा-सुखा हो गया हृदय
चल गाँव चलकर
इसमें कुछ अल्हड़ पन की नमी भरे,
आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
यादों के झरोखे चल फिर चल कर खोल ले,
हरिया भीखू और बसंती संग
फिर से बचपन वाला
बचपन का सावन मद में झूम ले,
मस्ती भरे वह दोस्ती के दिन
चल आज गाँव जाकर दिल में हम
फिर वही बचपन वाली उमंग भरें,
आ! मेरे मन आ!
वापस अब हम लौट चलें।
- शीतल शैलेन्द्र "देवयानी"
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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