विभावरी - by Mithilesh Tiwari "Maithili"
विभावरी
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है तमस रूप सृष्टि का विभावरी।
शांत क्लांत निस्तब्ध बावरी।
फैला निज श्यामल आँचल को।
समाती संसृति के कोलाहल को।
नित नीरव निद्रा नीड़ सजाती।
फिर स्वप्नलोक की सैर कराती।
मिटा दिनभर की अमिट थकान।
लाती कण-कण में नूतन बिहान।
करते क्रीड़ा चाँद सितारे बाँहों में।
सुधा बरसाती चंद्रिका राहों में।
है झुरमुट में सुर सरगम समाया।
तंद्रा ने फिर अनहदनाद सुनाया।
पर स्वीकार्य कहाँ ये राज निशा का।
कायम इससे ही अस्तित्व उषा का।
करते दृष्टित हम ध्वांत अँधेरे को।
देख नहीं पाते छिपे समष्टि सवेरे को।
त्याज्य अत्याज्य सभी समाए दामन में।
खेले आँख मिचौली तम जुन्हई प्राँगण में।
भाषित विभा से ही दिवा की गरिमा।
पर रहती घन छाई खुद की महिमा।
फँसी कालचक्रव्यूह में ये जगती ।
होकर दिन रात से ही सदा गुजरती।।
हेतु यही दीप्त उजाले की पहचान।
रहती स्वयं इस सच से अनजान।।
- मिथिलेश तिवारी "मैथिली"
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
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