जिंदगी - by Mithilesh Tiwari "Maithili"
जिंदगी
-
है जिंदगी एक धूप दोपहरी।
तो प्रिय साथ तुम्हारा छाँव सुनहरी।।
जिसकी शीतलता में खिलती।
बगिया जीवन की है मिलती।।
सुख-दुख दिन-रात से ढ़लते।
हम मिलकर साथ जो चलते।।
रंगत बहारों की है निखरती।
अंतर्मन की कलियाँ जब खिलती।।
सौंदर्य संवरता और पुष्प का।
करता स्पर्श पवन कुसुमरज का।।
प्रस्फुटित पराग राग उपवन में।
करता नृत्य नवल मयूर कानन में।।
संवेदनाओं केे कोमल धागों से।
पिरोए रिश्तों को कुसुमित भावों से।।
नित स्निग्ध स्नेह सौरभ बरसाते।
ज्यों गुलाब मध्य काँटों के मुस्काते।।
आदर्शों के श्वेत पोषक बनकर।
कृत संकल्पों की लाज बचा कर।।
चलते रहे सत्यदीप के उजाले में।
घिरे क्यों मिथ्या आरोपों के झाले में।।
सीख गए अब काँटों के संग जीना।
जहर जिंदगी का भी नित पीना।।
मिल रहा जो हाला आज जमाने से।
पी रहे उसे हम अमृत के पैमाने से।।
काश! होती कुछ नीलकंठ सी शक्ति।
नासूर बने प्रतिभावों से पाते मुक्ति।।
समझाएँ क्या? ही किसी को।
मिलता कर्मफल यहाँ सभी को।।
एक समान सरोवर में हैं पाते।
बगुला झख,और हंस मोती चुगते।।
है जग में बंधे सभी कर्म विधान से।
फल से बचते क्यों फिर अनजान से।।
- मिथिलेश तिवारी "मैथिली"
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
No comments