पढ़े जया त्रिपाठी मिश्रा जी की रचनाएँ ( Jaya Tripathi Mishra )
मेरी कलम को विस्तार चाहिए।
ना कि, भावनाओं को शब्दों की
सुंदर माला का सहज व्यवहार चाहिए,
कटु सत्य व विधाओं को देख ना रुके,
चाटुकारिता व छद्म स्नेह के द्वार ना झुके,
हृदय भेदती क्रंदन आहो को सुन सके,
जाल सत्य का सदैव यह बुन सके,
सृजन से पूर्व वह बौद्धिक
आकाश निर्विकार चाहिए।
मेरी कलम को तो वृहद विस्तार चाहिए।।
परिवर्तन समय का नियम,
लेकिन रखें कब तक संयम,
कुछ नयन सजल भी दिखते हैं,
कुछ हृदय विकल भी दिखते हैं।
फिर क्यों कलम से मेरे स्वर्णिम
मोतियों का व्यापार चाहिए।
मेरी कलम को तो वृहद विस्तार चाहिए।।
रचनाकार तो सदा स्वतंत्र था,
सामाजिक, सामयिक व
नैतिकता के समक्ष स्वच्छंद था,
लोभ नाम की आशा में परतंत्र हुआ,
राज नैतिक मूल्यों के पालन में हठ तंत्र हुआ,
कलम को मेरी तथ्यों का कड़वा संसार चाहिए।
ना कि परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा
मिथ्या भावनाओं से सज्जित प्रतिष्ठा का अंबार चाहिए।
मेरी कलम को तो वृहद विस्तार चाहिए।।
- जया त्रिपाठी मिश्रा
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
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(2) माटी का घरौंदा
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माटी का यह घरौंदा,
इक दिन माटी में मिल जाएगा।
माटी संग रंग कर माटी में,
ही सब कुछ खो जाएगा।।
रोकेंगे ना कोई अपने,
छूटेंगे बस सारे सपने।
कोई अपना न संगी-साथी,
साथ में फिर जाएगा।
माटी का यह घरौंदा...
रोको ना मन को अपने,
सपनों की यह दुनिया है।
देखो दूर तलक उड़ती,
ख्वाहिशों की चिड़िया है।
जब जाएँगे वापस हम तो,
सब यहीं रह जाएगा।
माटी का यह घरौंदा...
लोभ माया जंजीर से जकड़ा,
कैसे ईश को पाएगा?
पापों की गठरी है भारी,
त्याग इसे ना पाएगा।
रोक ले खुद को ए बंदे,
क्या वहाँ बतलाएगा?
ऊपर बैठा, जब पूछेगा,
कैसे उसे भरमाएगा?
माटी का घरौंदा...
- जया त्रिपाठी मिश्रा
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
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