घड़ी का काँटा, जीवन से नाता - by Dr. Somdutt Kashinath


घड़ी का काँटा, जीवन से नाता

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चुभते हैं पल-पल क्यों

काँटे भागते तेज़ निरंतर,

दीवाल पर बरसों से टंगी

टिक-टिक करती घड़ी के।

है पुरानी फिर भी सटीक

सवेरे जगाती, शाम सुलाती,

काँटे उसके होते नित्य ही

निर्णायक जीवन-गति के।।


सावधानी से बड़ी, नियंत्रण

चाल पर अपनी वह रखती,

सम गति से चलती सदा

समय पर नया रूप ढालती।

कर्मठ होने का देती संदेश

कर्म से ही बनते हैं महान,

समझौते और समझदारी के

घड़ी की सुइयाँ देतीं प्रणाम।।


सत्य तो होता उनका अकाट्य

जीवन भी निरंतर है पिघलता,

घड़ी के टिक-टॉक के साथ

जब क्षण एक-एक कर ढलता।

लेकर चलते रहते दिशा एक ही

वे काँटे रुख नहीं बदलते कभी,

जो क्षण यूँ ही हैं जाते निकल

यत्न करो कितने, वे नहीं लौटते।।


उस घड़ी को चलते देख सामने

मैं हमेशा सोचता मन ही मन,

घड़ी के काँटों की भांति ही

एक-दुसरे से बँधा है जीवन।

मिलना-बिछड़ना होता सदा

एक नियति, हर काँटा जुड़ा होता,

सेकेंड का काँटा मिनट चलाता

मिनट-मिनट घंटा बन जाता।।


एक घंटे में एक ही बार ज्यों

क्षण भर तीनों सुइयाँ मिलतीं,

फिर कितने समय के लिए

सभी सुइयाँ हैं बिछड़ जातीं।

हमारे जीवन में भी होता ऐसा

परिवार, दोस्त पलभर मिलते,

थोड़ा समय साथ बिताकर वे

यूँ ही अपने रास्ते निकल जाते।।


- डॉ० सोमदत्त काशीनाथ

मौरीशस

2 comments:

  1. Dr. Somdutt ji you selected a very unique subject. that subject is fully applied to a Huaman life as time is directly proportional to human life. I liked the poetry and words both keep it up.

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  2. Thanks you for your appreciation and supporting remarks.

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