खेत की मेड़ पर - by Gulshan Mandsauri
खेत की मेड़ पर
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शायद वें पड़े हुए,
अपने खेत की मेड़ पर।
केवल मन ही मन यह सोचते होंगे,
कि काश...
हम भी रिटायर्ड होते,
इन नेताओं की तरह और
यह खेत हमें पेंशन देते,
अनाज के तौर पर।
अपने खेत की मेड़ पर।
एकटक वह निहारता,
कुएँ पर लगें लिपटिस के पेड़ को,
और उठता एकाएक सवाल मन में,
काश ये पेड़ समझ पाते हमें,
पर पेड़ क्या समझेंगे?
जब एक इंसान, इंसान को
समझने से इंकार कर दें,
सोचते ही झुक जाती उसकी नज़र।
अपने खेत की मेड़ पर।
फ़सल अच्छी नहीं फ़िर भी ठीक है
दुःख उसके चेहरे से लिपटा,
जैसे लिपटा चन्दन से साँप।
देखता वह खेत के उन कोनों को,
जहाँ फ़सल अच्छी हुई।
धन्यवाद देता उन कोनों को,
जहाँ फ़सल बर्बाद हुई।
एक ख़ुशी अचानक उसके चेहरे पर।
अपने खेत की मेड़ पर।
- गुलशन मंदसौरी
मंदसौर, मध्य प्रदेश
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