मन की आस - by Smirti Thakur


मन की आस

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ढलता जीवन, देखो कैसी 

आस लगाए, अपनों से,

बिन माली के,बगिया कैसी

नीर बहाए, नयनों से ।

क्या खोया है और क्या पाया

जीवन आनी-जानी माया,

बीच भँवर में देखो कैसी

नाव बहाए लहरों से ।

ठहरा पानी, न ठहरे जीवन 

इक-इक पल में, लाखों उलझन,

आती खुशियाँ, देखो कैसी

प्रीत जगाए, जन्मों से ।

बीती बातें, यादों में शामिल

सपना बनके, रहती झिलमिल,

राहें अब भी, देखो कैसी

जीत दिलाए, पहरों से ।

ढलता जीवन, देखो कैसी

आस लगाए, अपनों से ।।


- स्मृति ठाकुर

मंडला, मध्य प्रदेश

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