बचपन - by Sunita Bhatt Goja
बचपन
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ढल चुका था, बदल चुका था ।
रेत के माने फिसल चुका था।
बचपन मेरा निकल चुका था।
याद है बचपन की सुहानी ,
बरसे हरदम आँख से पानी ।
मित्रों की थी टोली प्यारी ,
कट्टी-बट्टी की थी कहानी ।
खेलना कूदना खाना-पीना ,
पढ़ना लिखना मौज मनाना ,
बस यही तो थी अपनी जिंदगानी ।
माँ की डाँट, पिता का लाड ,
भूले नहीं है कुछ भी यार ।
तुम आए तो बचपन आया,
तुम संग सारी यादें लाया ,
बचपन की वह बातें लाया ।
तुम संग मैं भी हँसती जाऊँ ,
बचपन के वह लाड लडाऊँ ।
तुम खेलो तो मैं भी खेलूँ,
तुम रूठो तो मैं भी रूठूँ।
तुम संग बावली हुई फिरी मैं,
फिर से बचपन जी उठी मैं।
- सुनीता भट्ट गोजा
जम्मू, जम्मू कश्मीर
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