पढ़े तुलसीराम 'राजस्थानी' जी की रचनाएँ ( Tulsiram 'Rajsthani' )
(1) तुम बहू कहाँ से लाओगे
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अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहाँ से लाओगे।
एक पहिये से नहीं चलती, ये गृहस्थी वाली गाड़ी भी।
जितनी चाह है बेटा की, उतनी आवश्यक लाडी भी।।
बेटियाँ दुनियाँ में ना आएँगी,
तो फिर वंश कैसे बढ़ाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहां से लाओगे।
सृष्टि का आधार हैं बेटियाँ, बेटी को मत समझो भार।
बेटियों की बदौलत कायम है, ये जीवन और संसार।।
जब नहीं बचेंगी जननी ही,
तुम जन्म कहाँ ले पाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहाँ से लाओगे?
नारी है घर की लक्ष्मी, बिना नारी के कैसा परिवार।
नारी को तुम कम ना आंको, ये है दुर्गा का अवतार।।
मत कुचलो इन कलियों को,
तुम बगिया कैसे महकाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहां से लाओगे?
भांति-भांति के अत्याचार,और भांति-भांति के वार।
बलात्कार की खबरों से, रोज भरे रहते हैं अखबार।।
दहेज की चिता पर बेटियों को,
तुम कब तक जलाते जाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहाँ से लाओगे?
महापाप है भ्रूण-हत्या, ये बात सभी को समझाना है।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, अभियान सफल बनाना है।।
क्यों पाप के भागी बनते हो,
ऊपर क्या मुँह दिखलाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही
तो तुम बहू कहाँ से लाओगे?
बेटा घर का चिराग है, तो बेटी भी घर का ईमान है।
जहां पूजा होती नारी की, वो घर भी स्वर्ग समान है।।
'राजस्थानी' यूँ बेटियों का,
तुम कब तक मान घटाओगे?
अगर नहीं रहेंगी बेटियाँ ही,
तो तुम बहू कहाँ से लाओगे?
- तुलसीराम 'राजस्थानी'
नावां सिटी-नागौर, राजस्थान
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(2) मैं मजदूर हूँ
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मैं मजदूर हूँ।
रात-दिन अपना
खून-पसीना एक करता हूँ,
सर्दी-गर्मी-बरसात से
भला मैं कहाँ डरता हूँ।
मैंने ही अपने परिश्रम से
बड़ी-बड़ी ईमारतें
बड़े-बड़े पुल बनाए हैं,
पहाड़ों का सीना चीर कर
मैंने ही सड़कें और
आवागमन के रास्ते बनाए हैं।
धरती के गर्भ में छिपा
खजाना भी
मैं ही बाहर लाता हूँ,
मैं ही पर्वतों की चोटी पर
बड़े-बड़े गढ़-किले
और राजमहल बनाता हूँ।
दुनियाँ में
ऐसा कौन-सा काम है,
जिसे मैं नहीं कर पाता हूँ,
तभी तो मैं
श्रम का देवता कहलाता हूँ।
मैंने असम्भव को भी
सम्भव करके दिखलाया है,
मैंने ही लम्बी-चौड़ी
सड़कों के गरूर को
हजारों मील पैदल चलकर
आईना दिखलाया है।
किसी भी राष्ट्र की प्रगति का
एक मैं ही तो आधार हूँ,
ये बात जुदा है कि
मालिक और सत्ता की ओर से
मैं बहुत लाचार हूँ।
विधाता ने भी
क्या खूब लिखी
मेरी किस्मत की कहानी है,
अभावों से भरी हुई मेरी जिन्दगानी है।
सिर पर बोझ, गोदी में बच्चा
और आँखों में पानी है,
संघर्षों से जूझती हुई मेरी जवानी है।
मेरे घर में न सरस्वती का
ना ही लक्ष्मी मैया का वास है,
फिर भी
ईश्वर पर मेरा पूरा विश्वास है।
भले ही मैंने दूसरों के लिए
महल और कोठियाँ बना डाली,
मगर मेरे तो
आज भी टूटा-फूटा ही निवास है।
मैं मजबूर हूँ,
दुनियाँ की तमाम
ऐश-ओ-आराम की जिन्दगी से
मैं बहुत दूर हूँ।
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
- तुलसीराम 'राजस्थानी'
नावां सिटी-नागौर, राजस्थान
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