बसंत - by Ramji Trivedi
बसंत
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तेरी शोभा अनुपम बसंत, तेरा रूप बड़ा मनभावन है।
श्रृंगार अनोखे अकल्पित, मुखमंडल बड़ा लुभावन है।।
कोहरे की धुंधली दूरपरत, अंबर तक ऐसे जाती है।
ज्यूँ अंबर में निज प्रियतम, को घूंघट की ओट बुलाती है।।
जहाँ बिखरे हिम बिंदु लगे, माथे पर तेरी पसीना है।
ज्यूँ प्रियतम ने अनजाने में , मुख का दर्शन कर लीना है।।
तरुओं ने अपने कर खोले, डाली पर कली मुसकाई है।
भानु की पहली किरण निरख, वसुधा मन ही मन मुस्काई है।।
हर तन-मन में चंचलता है, लगता है कोई संत नहीं।
जड़ चेतन सब आल्हादित हैं, छाया है कहाँ बसंत नहीं।
आया सरिता में नीर नया, किरणों में आई नव लाली।
छिप गयी कहीं जाकर तुषार, ओसन में छाई बदहाली।।
तरुवर फल से हैं युक्त हुए, फूलों से लद गई है डाली।
रंगों को मौसम है आया, गेहूँ से लद गयी हैं वाली।।
मौलिक भू की तू शिल्पकार, लगती अनुदित किबदंत नहीं।
हर ओर तुम्हारा है वैभव, छाया है कहाँ बसंत नहीं।।
अवनि पुष्पित है हुई आज, हर ओर हरित हरियाली है।
भू ने ओढ़ी पीली चादर, गालों पर गुलाब की लाली है।।
कोयल की मीठी बोली में, तेरी आवाज सुनाती है।
झींगुर की झन-झन में शायद, पायल का साज सुनाती है।
आमों के तरु हैं बौर लदे, खग कलरव का है अंत नहीं।
खेतों में गेहूँ की बाली है, छाया है कहाँ बसंत नहीं।
रवि की शोणित है बनी ज्योति, रजनी में शशि शरमाते हैं।
काले-काले मेघ गगन में, दर्शन करने को आते हैं।।
चंचल समीर जब बहे मुक्त, तन में शीतलता आती है।
मधुमास को छूने के खातिर, तरु की डाली झुक जाती है।।
आमिय अधर का पुष्पों में, जहाँ-तहाँ भू पर बगराया है।
स्नान हेतु तेरे बसुधा पर, नव नीर स्वर्ग से आया है।।
हिम पात हुआ भयभीत बहुत, दिखता है कहीं हेमंत नहीं।
चहूँदिश बिखरी हैं रवि किरणें, छाया है कहाँ बसंत नहीं।।
- रामजी त्रिवेदी
फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश
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