छठ महापर्व ( Chhath Puja ) - by Chandan Keshri ( चन्दन केशरी )


छठ महापर्व

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पर्व तो हमारे सनातन धर्म में बहुत से हैं, लेकिन छठ पूजा तो हमारे लिए महापर्व है। आखिर ऐसी क्या विशेषता है छठ पूजा में, जिसके कारण इसे पर्व नहीं बल्कि महापर्व कहते हैं, आइए जानते हैं।


छठ पूजा उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के लिए सबसे बड़ा त्योहार है। वर्तमान समय में यह त्योहार सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि इसके साथ भारत के अन्य राज्यों तथा विदेशों में भी फैल रहा है। छठ मैया की महिमा ही ऐसी है कि जो भी उनके शरण में आता है, उसके सारे दुख माँ हर लेती है। यही वह त्योहार है; जिसका सभी यू०पी०, बिहार के लोगों को इंतज़ार रहता है। इसी त्योहार के बहाने दूर रहकर कमाने-खाने वाले लोग भी अपने घर वापस आते हैं और सपरिवार छठ पूजा मनाते हैं।


इस चार दिवसीय आस्था के महापर्व का आरम्भ नहाय खाय से होता है, जिसे कद्दू-भात के नाम से भी जाना जाता है। कहीं हलवा, तो कहीं खीर, कहीं फल, तो कहीं कुछ ; हमें ये चीजें ही प्रसाद के रूप में मिलती है ; लेकिन इस त्योहार में नहाय खाय के दिन जो प्रसाद मिलता है ; वह है कद्दू-भात।


इस त्यौहार में दूसरे दिन खरना होता है, जिसे लोहंडा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन से ही व्रतियाँ निर्जला व्रत रखती हैं। इस दिन शाम में प्रसाद के रूप में रसिया या खीर मिलता है। यह रसिया भी आपको किसी अन्य त्योहार में देखने को नहीं मिलेगा।


छठ पूजा के तृतीय दिवस को संध्या अर्घ या पहला अर्घ कहते हैं, इस दिन लोग अपने माथे पर दउरा उठाकर छठ घाट तक ले जाते हैं। दउरा उठाने का भी अपना एक अलग उत्साह रहता है, क्योंकि यह अवसर भी बड़े सौभाग्य से मिलता है। इस दिन अस्त होते सूर्य को अर्घ दिया जाता है। यूँ तो हम सभी ने देखा है कि हमेशा उगते सूर्य की ही पूजा की जाती है, लेकिन यही एक त्योहार है जिसमें डूबते सूर्य की पूजा होती है।


इसके अगले दिन को प्रातः अर्घ या पारण कहा जाता है। इसमें सूर्योदय से पहले ही लोग छठ घाट पर पहुँचे होते हैं। व्रतियाँ हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं और प्रतीक्षा करती हैं सूर्योदय की। सूर्योदय होते ही शुरु होता है इस दिन का कार्यक्रम, जिसमें उगते सूर्य को अर्घ दिया जाता है। इस दिन प्रसाद के रूप में फल तो रहता ही है, लेकिन इससे कहीं अधिक विशेष रहता है ठेकुआ। यह ठेकुआ हमारे लिए सिर्फ एक प्रसाद नहीं है, यह हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है जिसे हमसे अलग नहीं किया जा सकता है। ठेकुआ हमारे लिए एक ऐसी चीज है जिसपर सिर्फ नज़र पड़ जाने से ही हमें छठ पूजा की याद आने लगती है, छठ पूजा के दृश्य हमारे दिमाग में घूमने लगते हैं। ऐसा लगता है कि ठेकुआ से हमारा रिश्ता जन्म-जन्म का हो।


इस त्योहार की लोकप्रियता हर ओर बढ़ती जा रही है। यू०पी०, बिहार के लोग चाहे विदेश में ही क्यों न हो ; वे छठ पूजा मनाना नहीं भूलते। यह त्योहार सभी लोग जात-पात, ऊँच-नीच से ऊपर उठकर एक साथ एक ही छठ घाट पर मनाते हैं। इस त्योहार में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है, साथ ही साथ इसमें हमारी संस्कृति की झलक भी देखने को मिलती है।


यह ऐसा त्योहार है, जो बिना किसी पुजारी के मनाया जाता है। छठ मैया के गीत ही इस दौरान हमारे तन-मन में आस्था का संचार करती रहती है। अंगीका, मगही, मैथिली, अवधी ; इन लोकभाषाओं में लिखे छठ पूजा के गीत इतने सरल भाव में होते हैं कि किसी के भी हृदय को स्पर्श करने के लिए काफी हैं।


छठ पूजा की बात हो और शारदा सिन्हा जी का नाम न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। उनके गाए गए छठ गीत के बिना तो हमारा छठ अधूरा है।


ऐसा माना जाता है कि द्रौपदी ने भी छठ व्रत किया था। और तो और सूर्यपुत्र कर्ण भी छठ व्रत करते थे। अर्थात यह महापर्व कोई नया पर्व नहीं है, यह तो युगों-युगों से चला आ रहा है।


व्रतियाँ छठ व्रत मनोवांछित फल एवं परिवार की सुख-समृद्धि के लिए करती हैं। व्रतियाँ संतान प्राप्ति के लिए भी छठ का व्रत रखती हैं और छठ मैया भी उनकी गोद भर देती हैं।


छठ मैया और हमारा संबंध एक माता और उसकी संतान की तरह है। हम छठ मैया की संतान उनसे जो भी माँगते हैं, वह हमें अवश्य देती है। यह त्योहार हमारे लिए अन्य सभी त्योहारों से बड़ा एवं विशेष है, और क्यों है विशेष यह तो आप सभी ने जान लिया। तो आज के लिए सिर्फ इतना ही... धन्यवाद!


- चन्दन केशरी
पता :- झाझा, जमुई (बिहार)

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